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अर्थ :- जिस कोशलापुरी में लक्ष्मीवानों के आवासों में अन्धकार पक्ष में भी अन्धकार समूह का अवकाश होने पर मणियों की किरणों से रुकने पर रात्रि में दीपक मङ्गल के लिए ही हुए।
रत्नौकसां रुग्निकरेण राकी - कृतासु सर्वास्वपि शर्वरीषु।
सिद्धिं न मन्त्रा इव दुःप्रयुक्ता, यत्राभिलाषा ययुरित्वरीणाम् ॥७॥ अर्थ :- जिस नगरी में रत्नमय आवासों के कान्ति के समूह से समस्त रात्रियों के पूर्णिमा के सदृश किए जाने पर असती स्त्रियों की अभिलाषा दुःप्रयुक्त (मारणादिक कर्म में लगाए हुए) मन्त्र के समान सिद्धि को प्राप्त नहीं हुई।
यद्वेश्मवातायनवर्तिवामा - जने विनोदेन बहिःकृतास्ये।
व्योमाम्बुजोदाहरणं प्रमाण - विदां भिदामापदभावसिद्ध्यै॥८॥ अर्थ :- जिस नगरी में महलों के झरोखों में विद्यमान स्त्रियों के विनोद के कारण मुख के बाहर किए जाने पर तार्किक लोगों का आकाशकमल का उदाहरण अभाव की सिद्धि के लिए प्रयुक्त किए जाने पर भेद को प्राप्त हुआ। विशेषार्थ :- असद् वस्तु की प्रमाण से जो स्थापना की जाती है, वह अभावसिद्धि कही जाती है। जैसे आकाशकमल के समान पृथ्वीतल पर घड़ा नहीं है। स्त्रियों के मुख ही आकाशकमल थे, अत: वे सत्य थे। अतएव असत्कल्पनावादियों की आकाशकमल की कल्पना व्यर्थ हो गई।
युक्तं जनानां हृदि यत्र चित्रं, वितेनिरे वेश्मसु चित्रशालाः
यत्तत्र मुक्ता अपि बन्धमापुर्गुणैर्वितानेषु तदद्भुताय॥ ९॥ अर्थ :- जिस नगरी में आवासों में चित्रशालाओं ने लोगों के हृदय में चित्रकर्म अथवा आश्चर्य का ठीक ही विस्तार किया (क्योंकि जिसके पास जो वस्तु होती है, वह अन्य को भी देता है, यह बात ठीक भी है) । उन चित्रशालाओं में मुक्तों ने भी गुणों के विस्तार से बन्धन को प्राप्त किया। वह आश्चर्य के लिए हुआ; क्योंकि जो मुक्त (सिद्ध) होते हैं, वे सत्त्व, रज, तमो लक्षण रूप गुणों से कैसे बन्धन को प्राप्त होते हैं? अथवा शून्यप्रदेशों में जो मुक्त स्थापित होते हैं वे विनयादि गुण से कैसे बन्ध को प्राप्त होते हैं? अथवा जो उक्त चोरादि हैं वे गुणों - रस्सियों से कैसे बन्धन को प्राप्त होते हैं? इस प्रकार विरोध उपस्थित होता है। यहाँ विरोध का परिहार कहते हैं - मोतियों ने वितान चन्द्रमा के उद्योत में तन्तुओं से बन्धन को प्राप्त किया। विशेष :- यहाँ पर विरोध अलङ्कार है।
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[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१] Jain Education International
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