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________________ शास्त्र के आरम्भ में उनके नाम का ग्रहण करने से कर्ता और श्रोता का निश्चित रूप से मङ्गल और अभ्युदय होता है, इस प्रकार सब कुछ सुस्थ है। सम्पत्रकामा नयनाभिरामाः, सदैव जीवत्प्रसवा अवामाः। यत्रोज्झितान्यप्रमदावलोका, अदृष्टशोका न्यविशन्त लोकाः॥२॥ अर्थ :- जिस कोशला नगरी में सम्पन्न मनोरथ, नयनाभिराम, सदैव (जीवितावधि) जीवित रहने वाली सन्तानों से युक्त, परस्पर प्रतिकून न रहने वाले, परस्त्री पर दृष्टिपात का त्याग किए हुए तथा (इष्ट वस्तु आदि का वियोग न होने के कारण) जिनका शोक दिखाई नहीं देता है, ऐसे लोग निवास करते हैं। चन्द्राश्मचञ्चत्कपिशीर्षशाली, सुवर्णशालः श्रवणोचितश्रीः। । यत्राभितो मौक्तिकदत्तवेष्ट,-ताटङ्कलीलामवहत् पृथिव्याः॥३॥ अर्थ :- जिस नगरी में चन्द्रकान्तमणि से सुशोभित होने वाले कंगूरों से शोभायमान श्रवण (सुनने अथवा कान) के योग्य शोभा से युक्त सुवर्ण का प्राकार चारों ओर पृथिवी के मोतियों से वेष्टित कर्णाभरण की लीला को धारण करता था। विशेष :- यहाँ श्रवणोचितश्री: में श्लेष अलंकार है । प्राकार पक्ष में अर्थ होगा - सुनने के योग्य जिसकी शोभा है। कर्णाभरण पक्ष में अर्थ होगा - कान के योग्य जिसकी लक्ष्मी है। दद्भिरर्हद्भवनेषु नाट्य-क्षणे गभीरध्वनिभिः मृदङ्गैः। यत्राफलत्केलिकलापिपंक्ते-विनाऽपि वर्षा घनगर्जिताशा॥ ४॥ अर्थ :- जिस कोशला नगरी में नाटक के अवसर पर अर्हन्त भगवान् के भी भवनों में गम्भीर ध्वनि वाले मृदङ्गों के कारण क्रीड़ामयूरों की पंक्ति की वर्षा के बिना भी मेघ की गर्जन की आशा फलीभूत हुई। हर्षादिवाधःस्थितनायकानां, प्राप्य स्थितिं मौलिषु मन्दिराणाम्। यस्यां क्वणत्किंकिणिकानुयायि, नित्यं पताकाभिरकारि नृत्यम्॥५॥ अर्थ :- जिस कोशला नगरी में जिनके नीचे स्वामी हैं ऐसे मन्दिरों के शिखरों पर स्थिति प्राप्त करके मानो हर्ष से ही बजती हुई क्षुद्रघंटिकाओं का अनुसरण करने वाली पताकाओं से नित्य नृत्य कराया गया। तमिस्रपक्षेऽपि तमिस्रराशे, रुद्धेऽवकाशे किरणैर्मणीनाम्। यस्यामभूवन्निशि लक्ष्मणानां, श्रेयोर्थमेवावसथेषु दीपाः॥६॥ (२) [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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