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________________ १. प्रथमो सर्गः ... - - अस्त्युत्तरस्यां दिशि कोशलेति, पुरी परीता परमर्द्धिलोकैः। निबेशयामास पुरः प्रियायाः, स्वस्या वयस्यामिव यां धनेशः॥१॥ अर्थ :- परम ऋद्धि वाले लोगों से घिरी हुई उत्तर दिशा में अयोध्या नाम की नगरी थी, जिसे कुबेर ने अपनी प्रिय नगरी अलका के सामने सखी के समान स्थापित किया था। विशेषार्थ :- ऐसा आगम से ज्ञात होता है कि जन्म के अनन्तर बीस लाख वर्ष पूर्व व्यतीत होने पर ऋषभदेव भगवान ने इस अवसर्पिणी के तृतीय आरे की समाप्ति पर विश्व व्यवहार-बन्धत्व से मुग्धमति वाले प्रजाओं को समस्त न्याय के प्रदर्शन के लिए राज्यभार अङ्गीकार किया। तब सौधर्मेन्द्र के निर्देश के वशीभूत कुबेर ने सुवर्ण के प्रकार वाली आकाश के छूने वाले स्फटिक मणि निर्मित भवनों से युक्त. नई-नई पूजा, उत्सव तथा विहारों से युक्त, नवयोजन चौड़ी तथा बारह योजन लम्बी, सरोवर, सरसी (तलैयों), बावड़ी, गृह तथा वाटिकाओं से सुन्दर अयोध्या नाम की पुरी की रचना की। कवि कल्पना करता है कि जिस प्रकार कोई धनी व्यक्ति अपनी प्रिया की सखी नियुक्त करता है उसी प्रकार कुबेर ने अयोध्या के रूप में मानों अपनी प्रिय नगरी अलका की सखी की ही नियुक्ति की हो। इस काव्य में नगर, सागर, शैल, ऋतु, चन्द्रोदय, सूर्योदय, उद्यान, जलक्रीड़ा, मधुपान, सुरतमन्त्र, दूतप्रयाण, जिनालयाभ्युदय, विवाह, विप्रलंभ तथा कुमार वर्णन रूप अठारह लक्षण होने से यह महाकाव्य है। प्रश्न : आदि में मङ्गलाचरण के बिना श्रोता की प्रवृत्ति का निमित्त नहीं होता है? उत्तर : यह महाकाव्य श्री ऋषभदेव के नाम-मन्त्र से पवित्र है, अत: सब कुछ मङ्गलमय है। मङ्गल का भी मङ्गल करने से अनवस्था नामक दोष दुर्निवार है। प्रकाशमय प्रदीप अपने प्रकाशन के लिए अन्य प्रदीप की अपेक्षा नहीं करता है। दूसरी बात यह है कि जो अर्हन्त भगवान् से अध्यासित हो, उसे भी तीर्थ कहते हैं, इस वचन के अनुसार बहत से तीर्थंकरों से अध्यासित अयोध्या (कोशला) भी तीर्थ रूप है। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१] (१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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