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सामान्य रूप से महाकवि स्वकीय महाकाव्य में विभिन्न रसों का निरूपण करने के साथ शृंगार, वीर या करुण में से कोई एकाध रस को प्रधानता देते हैं। श्री जयशेखरसूरि ने इस महाकाव्य में विभिन्न रसों का निरूपण किया है। जैन साधुकवियों ने , का 'व्य रस के रूप में वर्णन किया हो ऐसा देखने को नहीं मिलता है। अर्थात् 'जैनकुमारसंभव' के मुख्य रस के रूप में 'शांत रस' को मानना हो तो मान सकते हैं, क्योंकि उपशम वह शांत का स्थायी भाव है।
___ इस प्रकार जैनकुमारसंभव' में कवि की वाणी सहज रूप से ही प्रसादादि गुणों एवं अलंकारों सहित प्रवहमान है। कवि के पास कल्पना वैभव है एवं महाकवि की प्रतिभा है, उसकी प्रतीति स्थानस्थान पर बारंबार इस महाकाव्य का रसपूर्वक बारीकी से पढ़ने पर हमको होती है। कवि ने भले ही अपने महाकाव्य का नाम अनुकरणात्मक दिया हो, लेकिन जैनकुमारसंभव' वह हमारे महाकाव्य की परंपरा में सबहुमान विराजमान हो ऐसा मौलिक उत्तम महाकाव्य है।
(महाकवि श्रीजयशेखरसूरि भाग-१ से साभार उद्धृत)
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[ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ]
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