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________________ संस्कृत महाकाव्यों में श्रृंगार, वीर, करुण इत्यादि रसों का निरूपण हो वह उसका महत्त्वपूर्ण लक्षण है। जैन विरक्त, संयमी, साधु-कवि श्रृंगार रस का निरूपण नहीं करे यह स्वाभाविक है। कालिदास ने 'कुमारसंभव' में शंकर-पार्वती के वर्णन में जैसा शृंगार रस का विस्तृत निरूपण किया है वैसा कवि श्री जयशेखरसूरि ने नहीं किया है, तब भी यह उनका महाकाव्य श्रृंगार रस रहित नहीं है। उन्होंने प्रसंगोपात्त श्रृंगार रस का सांकेतिक निरूपण भी किया है। कवि वर्णन करता है : ऋषभदेव के विवाह में आते समय प्रियतमा का स्पर्श होने पर किसी देवांगना की मैथुनेच्छा जागृत हो गई। भावोच्छ्वास से उसकी कंचुकी के बंधन टूट गये। वह कामवेग के कारण विह्वल हो गई, वह प्रिय को मनाने हेतु उसकी प्रशंसा करने लगी। देखें : उपात्तपाणिस्त्रिदशेन वल्लभा श्रमाकुला काचिदंचिकंचुका। वृषस्य या चाटुशतानि तन्वती जगाम तस्यैव गतस्य विघ्नताम्॥४-१०॥ नवविवाहित ऋषभदेव को देखने हेतु उत्सुक एक नगर नारी की अधबंधी नीवी दौड़ने के कारण खुल गई। उसका अधोवस्त्र नीचे उतर गया लेकिन उसका उसे ध्यान भी नहीं रहा। वह प्रभु को देखने दौड़ गई एवं जनसमुदाय में मिल गई। देखें : कापि नार्धयमितश्लथनीवी, प्रक्षरन्निवसनापि ललजे। नायकानननिवेशितनेत्रे, जन्यलोकनिकरेऽपि समेता ॥ ५-३९॥ श्री जयशेखरसूरि ने 'जैनकुमारसंभव' में रस निरूपण कैसा किया है इस विषय में श्री सत्यव्रत लिखते हैं : 'मानव हृदय की विविध अनुभूतियों का रसात्मक चित्रण करने में जयशेखर सिद्धहस्त हैं, जिसके फलस्वरूप 'कुमारसंभव' सरसता से आर्द्र है। शास्त्रीय परम्परा के अनुसार श्रृंगार को इसका प्रमुख रस माना जा सकता है, यद्यपि अंगीरस के रूप में इसका परिणाम नहीं हुआ है । जैनकुमारसंभव' में श्रृंगार के कई सरस चित्र देखने को मिलते हैं। काव्य में श्रृंगार की मधुरता का परित्याग न करना पवित्रतावादी जैन कवि की बौद्धिक ईमानदारी है।' ('श्रीआर्यकल्याण-गौतम-स्मृति ग्रन्थ' हिन्दी विभाग 3, पृष्ठ ७०) ___ 'जैनकुमारसंभव' में वात्सल्य, भयानक एवं हास्यरस भी शृंगार के पोषक बन कर आये हैं। ऋषभ कुमार के शैशव के चित्रण में वात्सल्य रस का निरूपण देखने को मिलता है। शिशु ऋषभ दौड़ कर पिता के गले लग जाते हैं, उसके अंग स्पर्श से पिता आनन्द विभोर हो जाते हैं, हर्ष से उनकी आँखें बंद हो जाती हैं एवं ऋषभ कुमार तात-तात की आवाज देते हैं । देखें : दूरात् समाहू य हृदोपपीडं माद्यन्मुदा मीलितनेत्रपत्रः। अथांगजं स्नेहविमोहितात्मा यं तात तातेति जगाद नाभिः ।। १-२८॥ नगर वासियों के सम्भ्रम के चित्रण में निम्र पद्य में हास्य रस की रोचक अभिव्यक्ति हुई है, देखें : तूर्णिमूढदृगपास्य रुदन्तं, पोतमोतुमधिरोप्य कटीरे । कापि धावितवती नहि जज्ञे, हस्यमानमपि जन्यजनैः स्वम्।। ५-४१॥ [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ] (५९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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