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________________ अस्तगामी युग की होने पर भी उसकी भाषा माघ कवि के सदृश कठिन, समासान्त एवं कष्ट साध्य नहीं है। उनकी भाषाशैली में प्रौढ़ता और उदात्तता के लक्षण विद्यमान हैं। इसीलिये उनकी कितनी ही पंक्तियाँ सूक्ति जैसी बन गई हैं, जैसे : 1. व : स तदाभचेष्टित: (सर्ग 2/6 ), 2. न कोथवा स्वेऽवसरे प्रभूयते ( 4/69), 3. रागमेधयति रागिषु सर्वम् (5/16), 4. अतित्वरी विघ्नकरीष्टसिद्धे (8/62), 5. अहो यशो भाग्यवशोपलभ्यम् (11/11)। रस-निरूपण एवं विविध प्रसंग 'जैनकुमारसंभव' में संस्कृत महाकाव्य की परम्परानुसार विविध प्रसंग, परिस्थिति एवं नायकनायिका सहित पात्रों के निरूपण में कवि कितनी बार ऐसे-ऐसे विषयों का सविस्तर वर्णन करता है कि जिसमें उन विषयों में कवि की जानकारी के उपरांत तत्कालीन परिस्थिति का प्रतिबिंब भी प्राप्त होता है। इस महाकाव्य में भी राजनीति, भोजन विधि, आभूषण, प्रसाधन सामग्री, विविध वाद्यों, समुद्री व्यापार एवं लग्न की विधि इत्यादि के निरूपण में तत्कालीन सामाजिक परिस्थिति का प्रतिबिंब एवं सामाजिक चेतना का स्पंदन देखने को मिलता है। इसमें तत्कालीन सामाजिक मान्यताओं एवं कुरीतियों का निर्देश भी हुआ है। अर्थात् 'जैनकुमारसंभव' तत्कालीन जीवन की अभिव्यक्ति की व्यापक एवं गहन दृष्टि से एक महत्त्व की काव्यकृति बनी है। इस महाकाव्य में सुमंगला के मुख से नारियों के विषय में जो निम्न प्रकार का अभिप्राय प्रकट किया है :- (सर्ग 7/61 से 67) उसमें भी तत्कालीन वास्तविक लोकमान्यता का प्रतिबिंब देख सकते हैं। इस महाकाव्य का विषय जैन कथानक है। कवि जैनधर्मी है और फिर आचार्य है। इसलिये उनकी वाणी में जैन धर्म की बातों का सहज रूप में वर्णन हो स्वाभाविक है। इस महाकाव्य में उपमादि अलंकारों के वर्णन में कवि ने जैन तत्त्वज्ञान की परिभाषा कैसे सहज रूप से ग्रथित की है वह निम्न श्लोक से जान सकते हैं : नयस्य वश्यः किमु संग्रहस्य, स्त्रैणं चलं ध्यायसि सर्वमीश | कोशातकी कल्पलते लतासु, दृष्ट्वां च विश्वं व्यवहारसारम् ॥ ३-२०॥ (हे ईश ! संग्रहनय के वश होकर आप सर्व स्त्री-समूह को चलायमान क्यों मानते हो? लताओं में तुरई की वेल एवं कल्पलता को देख कर जगत का व्यवहार नय में सार है ऐसा मानो ।) इस श्लोक में कवि ने संग्रहनय एवं व्यवहार-नय की जैन परिभाषा का प्रयोग करके अर्थ चमत्कृति उत्पन्न की है : सुश्रुताक्षरपथानुसारिणी, ज्ञातसंमतकृतांगिक क्रिया । आत्मकर्मकलनापटुर्जगौ, कापि नृत्यनिरता स्वमार्हतम् ॥ १०-६१ ॥ - (अच्छी तरह जाने हुए एवं स्खलनारहित ऐसे मार्ग को अनुसरने वाली (पक्ष में अच्छी तरह सुने हुए मोक्ष मार्ग को अनुसरने वाली), जानी हुई; मानी हुई एवं की हुई है शरीर संबंधी क्रिया जिसने (पक्ष - जानी हुई, मिली हुई एवं की हुई है शास्त्र संबंधी क्रिया जिसने ) एवं अपने कार्यों को समझने में चतुर (पक्ष में - आत्मा एवं कर्म संबंधी विचार करने में चतुर) ऐसी कोई सखी नृत्य करती हुई खुद की आत्मा को जैन कहने लगी ।) (५८) Jain Education International [ जैन कुमारसम्भव : एक परिचय ] www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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