________________
अर्थ :- जहाँ पर वाञ्छित दान में समर्थ कल्पवृक्ष वायु के द्वारा चञ्चल कोमल पत्ते रूप हाथों से इच्छानुसार याचना करने वाले व्यक्तियों की याचना सम्बन्धी दीनता का निवारण करते थे ।
पूषेव पूर्वाचलमूर्ध्नि घूक कुलेन घोरं ध्वनतापि यत्र । नाखण्डि पाखण्डिजनेन पुण्य-भावः सतां चेतसि भासमानः ॥ १६ ॥ अर्थ :- जैसे पूर्वाचल ( उदयाचल) के मस्तक पर दीप्यमान सूर्य घोर आवाज करने वाले भी उल्लूओं के समूह के द्वारा भी खण्डित नहीं होता है, उसी प्रकार सज्जनों के चित्त में भासमान पुण्यभाव पाखण्डि लोगों के द्वारा जिस नगरी में खण्डित नहीं हुआ । ईक्ष्वाकु भूरित्यभिधामधाद्भू-र्यदा निवेशात् प्रथमं पुरोऽस्याः । नाभेस्तदा युग्मिपतेः प्रपेदे, तनूजभूयं प्रभुरादिदेवः ॥ १७॥ अर्थ :- जिस अवसर पर इस नगरी की रचना के पूर्व भूमि ने इक्ष्वाकु भूमि इस प्रकार के नाम को धारण किया उस अवसर पर श्री ऋषभ प्रभु ने युगल स्वामी नाभि राजा के पुत्रभाव को प्राप्त किया।
यो गर्भगोऽपि व्यमुचन्न दिव्यं, ज्ञानत्रयं केवलसंविदिच्छुः । विशेषलाभं स्पृहयन्त्र मूलं, स्वं संकटेऽप्युज्झति धीरबुद्धिः ॥ १८ ॥
अर्थ :- केवल ज्ञान को प्राप्त करने के इच्छुक जिन भगवान् ने गर्भ में स्थित रहते हुए भी दिव्य ज्ञानत्रय (मति, श्रुति और अवधि ज्ञान) को नहीं छोड़ा। धीरबुद्धि पुरुष विशेष के लाभ की इच्छा करता हुआ सङ्कट में भी अपनी मूलधन को नहीं छोड़ता है । विशेष इस पद्य में अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है ।
:
यत्रोदरस्थे मरुदेव्यदीव्यत्, पुण्येति साध्वीति न कस्य चित्ते । श्रीधानि सन्मौलिनिवासयोग्ये, महामणौ रत्नखनिः क्षमेव ॥ १९॥
अर्थ :- शोभा के गृह, साधुओं के सिर पर निवास करने के योग्य जिन भगवान् के उदर में रहने पर लक्ष्मी के गृह प्रशंसनीय तथा मुकुट में निवास के योग्य, महामणि जिसके मध्य में है तथा जो रत्नों की खान हैं, ऐसी पृथिवी के समान मरुदेवी, पवित्र है, साध्वी है, इस प्रकार किसके मन में दीप्त नहीं हुई? अर्थात् सबके मन में दीस हुई।
विशेषार्थ :- जो शोभा के घर हैं तथा साधुजन जिन्हें श्रद्धापूर्वक अपने सिर पर धारण करते हैं ऐसे भगवान् ऋषभदेव के गर्भ में आने पर मरुदेवी के विषय में लोग ऐसा कहने लगे कि यह पुण्या है, यह साध्वी है, जिस प्रकार कि प्रशंसनीय मुकुट में निवास [ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१ ]
(५)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org