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________________ के योग्य महामणि जिसके उदर में है तथा जो रत्नों की खान है, ऐसी पृथिवी के विषय में लोग कहा करते हैं कि यह पुण्या है, यह साध्वी है । यहाँ पर उपमा अलङ्कार है। मध्येऽनिशं निर्भरदुःखपूर्णा-स्ते नारका अप्यदधुः सुखायाम्। यत्रोदिते शस्तमहोनिरस्त-तमस्ततौ तिग्मरुचीव कोकाः॥ २०॥ अर्थ :- रात्रि के मध्य में अत्यधिक दुःख से पूर्ण चक्रवाक पक्षी जिस प्रकार जिसने अपने तेज से अन्धकार के समूह का नाश कर दिया है ऐसे सूर्य के उदित होने पर सुख का अनुभव करते हैं, उसी प्रकार जिन भगवान् ऋषभदेव का उदय होने पर चित्त में निरन्तर अत्यधिक दुःख से पूर्ण नारकियों ने भी सुख का अनुभव किया। निवेश्य यं मूर्धनि मन्दरस्या-चलेशितुः स्वर्णरुचिं सुरेन्द्राः। प्राप्तेऽभिषेकावसरे किरीट - मिवानुवन्मानवरत्नरूपम्॥ २१॥ अर्थ :- इन्द्रों ने पर्वतों के स्वामी मन्दराचल के मस्तक पर मुकुट के समान सुवर्णवत् कान्ति वाले, मनुष्यों में रत्न स्वरूप जिन्हें बैठाकर अभिषेक का अवसर प्राप्त होने पर स्तुति की। विशेषार्थ :- राजा के मस्तक पर जिस प्रकार सुवर्ण की कान्ति वाला, लक्ष्मी के नए रत्न रूप के समान मुकुट रखा जाता है, उसी प्रकार इन्द्रों ने पर्वतों के स्वामी मन्दराचल के मस्तक पर मुकुट के समान सुवर्ण कान्ति उन भगवान् ऋषभदेव को बैठाकर अभिषेक के समय उनकी स्तुति की। वे भगवान् मनुष्यों में रत्नस्वरूप थे। सुपर्वसु स्वानुचरेषु तोषा-दिवेक्षुदण्डेऽस्य सुपर्वणीन्द्रः। शिशोर्विदित्वा रुचिमाशु वंश-मीक्ष्वाकुनामाङ्कितमातनिष्ट ॥ २२॥ अर्थ :- इन्द्र ने मानो अपने अनुचर देवों के सन्तोष से ही इस शिशु की शोभन पोर वाले इक्षुदण्ड में रुचि जानकर शीघ्र ही इक्ष्वाकु नाम से अङ्कित वंश का विस्तार किया। विशेष :- अतीत, वर्तमान और आगामी तीर्थंकरों के वंशों की स्थापना ही का कार्य इन्द्र के अधीन है, अतः प्रभु ऋषभदेव के वंश की स्थापना के लिए प्रस्तुत इन्द्र ने आकर जब उनकी रुचि ईख के विषय में देखी तो उनसे कहा-प्रभो! क्या ईख खाओगे? भगवान् ने अपने हाथ को फैलाया, अत: इन्द्र ने इसी घटना पर इक्ष्वाकुवंश नाम रखा। अन्य भी क्षत्रिय ईख खाने से इक्ष्वाकु हुए। अक् धातु भक्षण अर्थ में आती है। प्रभु के पूर्वजों ने काश्य = इक्षुरस का पान किया था, अतः काश्यप गोत्र कहलाया। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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