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विलोक्य यं पालनके शयालु, यशोऽस्य लोकत्रयपूरकं च।
कार्य कलामञ्चति कारणस्ये - त्युक्तिम॒षैवानिमिषैरघोषि॥ २३ ॥ अर्थ :- जिन भगवान् ऋषभदेव को पालने में सोता हुआ देखकर और इनके यश को तीनों लोकों में व्यापक देखकर देवों ने कार्य कारण की कला को प्राप्त होता है, यह उक्ति झूठी ही घोषित कर दी।
आशाम्बरः शान्तविकल्पवीचि-मना विना लक्ष्यमचञ्चलाक्षः।
बालोऽपि योगस्थितिभूरवश्यः, स्वस्यायतौ यः कमनेन मेने॥ २४॥ अर्थ :- बालक होने पर भी जो योग की मर्यादा की भूमि थे, दिशायें ही उनके वस्त्र थे, उनके मन की विचार-तरंगें शान्त हो गई थीं, लक्ष्य के बिना भी उनके नेत्र चंचल नहीं थे, जिन्हें कामदेव उत्तरकाल में अपने वश में नहीं रहने वाला मानते थे।
अस्तन्यपायीति विनिश्चितोऽपि, काऽमुंपयोऽपीप्यदिति स्वमातुः। चिराय चेतश्चकितं चकार, स्मितेन धौताधरपल्लवो यः॥ २५॥ अर्थ :- जो स्तनपान नहीं करते हैं, इस प्रकार निश्चित होने पर भी किसने इन्हें दूध पिलाया, इस प्रकार मन्द मुस्कराहट से जिनके अधर रूप पल्लव धोए गए हैं, ऐसे जिन भगवान् ने चिरकाल तक अपनी माता के चित्त को चकित कर दिया।
अौघदंभाबहिरु द्गतेन, माता नमाता हृदि सम्मदेन।
परिप्लुताक्षी तनुजं स्वजन्ती, यं तोषदृष्टेरपि नो बिभाय॥ २६॥ अर्थ :- हृदय में जो समाता नहीं था ऐसे हर्ष के कारण बाहर निकले हुए आँसुओं के समूह के बहाने से जिसके दोनों नेत्र भीग गए हैं ऐसी माता मरुदेवी जिस बालक का आलिङ्गन करती हुई सन्तोष रूपी दृष्टि से युक्त होने पर भी डरती नहीं थी।
अव्यक्तमुक्तं स्खलदंघ्रियानं, निःकारणं हास्यमवस्त्रमङ्गम्।
जनस्य यद्दोषतयाभिधेयं, तच्छेशवे यस्य बभूव भूषा ॥ २७॥ अर्थ :- लोगों के लिए अव्यक्त बोलना, लड़खड़ायी हुई गति से गमन करना, बिना कारण हँसना तथा निर्वस्त्र अङ्ग दोष रूप में कहा जाता है, वह जिन भगवान् ऋषभदेव का आमरण हुआ।
दूरात् समाहूय हृदोपपीडं, माद्यन्मुदा मीलितनेत्रपत्रः।
अथाङ्गजं स्नेहविमोहितात्मा, यं ताततातेति जगाद नाभिः॥ २८॥ अर्थ :- जिनकी आत्मा स्नेह से विमोहित थी, हर्ष से जिनके नेत्र रूपी पत्र बन्द हो रहे
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[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१] Jain Education International
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