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अर्थ :- सुमङ्गला ने गद्गद् वाणी से समीप की श्रेणि में स्थित सखियों से कहा । हे सखियों! इन्द्र इस व्यक्ति के रस से तृप्त हए बिना ही उक्ति से विराम को क्यों प्राप्त हो
गया।
दौःस्थ्यं किमस्यापि कथाप्रथासु,न्यासोचिता वा किमु नास्मि तासाम्।
वाणीरसे मामसमाप्तकामां, विहाय यत्सैष ययौ विहायः॥ ५४॥ अर्थ :- इन्द्र की भी कथा प्रथाओं में क्या दारिद्रय है अथवा उन कथा परम्पराओं को मैं धारण करने के योग्य नहीं हूँ जो कि यह इन्द्र वाणी रस में असम्पूर्ण अभिलाषा वाली मुझे छोड़कर आकाश में चले गए।
यस्यामृतेनाशनकर्म तस्य, वचः सुधासारति युक्तमेतत् ।
पातुः पुनस्तत्र निपीयमाने, चित्रं पिपासा महिमानमेति ॥ ५५॥ अर्थ :- जिस इन्द्र का अमृत से आहार है, उसके वचन अमृत की वर्षा के समान होते हैं, यह बात ठीक ही है। पुनः आश्चर्य है कि उन वचनों का पान करने पर पीने वाले की प्यास महत्त्व को प्राप्त होती है।
न मार्जितावत्कवलेन लेह्या, न क्षीरवच्चाञ्जलिना निपेया।
अहो सतां वाग् जगतोऽपि भुक्त-पीतातिरिक्तां विदधाति तुष्टिम् ॥५६॥ अर्थ :- आश्चर्य है, सज्जनों की वाणी भोजन के समान ग्रास से आस्वाद नहीं है और दूध के समान अञ्जलि से पीने योग्य नहीं है। सज्जनों की वाणी संसार की भोजन और (क्षीर) पान से भी अधिक तुष्टि करती है।
न चन्दनं चन्द्रमरीचयो वा, न वाप्यपाचीपवनो वनी वा।
सितानुविद्धं न पयः सुधा वा, यथा प्रमोदाय सतां वचांसि॥५७॥ अर्थ :- न तो चन्दन, न चन्द्रमा की किरणें, न दक्षिण दिशा का पवन, न महद्वनं अथवा शर्करा मिश्रित दूध अथवा अमृत उस प्रकार प्रमोद के लिए होते हैं। जैसे सत्पुरुषों के वचन प्रमोद के लिए होते हैं।
अङ्गष्ठयन्त्रार्दनया ददानौ, रसं रसज्ञा सुधियां रसज्ञे। __सुधा प्रकृत्या किरती परेष्ट-स्तनेक्षुयष्टी न न धिक्करोति ॥५८॥ अर्थ :- रसज्ञ पुरुष. में स्वभाव से अमृत का विस्तार करती हुई विद्वानों की जीभ, अंगूठा और यन्त्र की पीड़ना से रस को प्रदान करने वाले बहु प्रसूता गो के स्तन और इक्षुयष्टि इन दोनों को नहीं धिक्कारती है, ऐसा नहीं है।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-११]
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