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अर्थ :- हे नाथ! निश्चित रूप से यह षट् खण्ड वाला भरत क्षेत्र शक्तिशाली एकमात्र देव आपको प्राप्त कर मनुष्यों का प्रकट होते हुए पाप रूप भूत के निग्रह में षट्कोणयन्त्र की रचना का आश्रय लेता है। विशेष :- भरत क्षेत्र ने परमदेव भगवान् को प्राप्त कर मनुष्यों के पाप रूप भूत निग्रह करने में षटखण्ड रूप षट्कोणयन्त्र की रचना का आश्रय लिया।
तपोधनेभ्यश्चरता वनाध्वना, धनस्य भावे भवता धनीयता।
अदीयताज्यं यदनेन कौतुकं, तवैव शिश्वाय वृषो वृषध्वज॥ ५५ ॥ अर्थ :- हे नाथ! आपने वनमार्ग से विचरण करते हुए धन सार्थवाह के भव में तपस्वियों को जो घृत दिया था, धन की इच्छा करते हुए उस घी से हे वृषभ लाञ्छन आश्चर्य की बात यह है कि आपका ही वृषभ या पुण्य फलने फूलने के लिए वृद्धि को प्राप्त हुआ।
भवे द्वितीये भुवनेश युग्मितां, कुरुष्ववाप्ते त्वयि किङ्करायितम्।
मनीषितार्थक्रियया सुरदुमै-र्जितैरिव प्राग् जननापवर्जनैः॥५६॥ अर्थ :- वाञ्छित पदार्थों के करने से पहले पूर्वजन्म क दानों से मानों पराजित हुए कल्पवृक्षों ने दूसरे भव में उत्तर कुरु में युगलपने को प्राप्त हुए आपकी सेवा की थी।
सधर्म सौधर्मसुपर्वतां ततो-ऽधिगत्य नित्यं स्थितिशालिनस्तव।
सुराङ्गना कोटिकटाक्षलक्ष्यता-जुषोऽपि नो धैर्यतनुत्रमत्रुटत्॥५७॥ अर्थ :- हे धर्मयुक्त! अनन्तर सौधर्म देवत्व को प्राप्त कर देवाङ्गनाओं के करोड़ों कटाक्षों के लक्ष्यों से युक्त होने पर भी नित्य मर्यादा से शोभायमान आपका धैर्य रूपी कवच नहीं टूटा।
महाबलमापभवे यथार्थकी, चकर्थ बोधैकबलान्निजाभिधाम्।
अखर्वचार्वाकवचांसि चूर्णय-नयोघनानक्षरकोट्टकुट्टने॥ ५८॥ अर्थ :- हे नाथ आपने महाबल राजा के भव में प्रौढ़ चार्वाक के वचनों को चूर्ण करते हुए मोक्ष रूपी दुर्ग के कूटने में बोध रूप एक बल से लौहमुद्गरों का प्रयोग करते हुए अपने नाम को यथार्थ कर दिया।
द्वितीयकल्पे ललिताङ्गतां त्वया, गतेन वध्वा विरहे व्यलापि यत्। .
दरिद्रपुत्र्यै ददितुं तपः फलं, तदन्यदर्था हि सतां क्रियाखिला॥ ५९॥ अर्थ :- हे नाथ! तुमने दूसरे कल्प में ललिताङ्ग नाम को प्राप्त हुए वधू के विरह में जो
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[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-२]
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