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________________ दोष नष्ट हो गए हैं, ऐसे हे आदिदेव ! अत्यन्त निष्पाप प्रभा के प्रभाव से जिन्होंने सूर्य के वैभव को भी अल्प बना दिया है, ऐसे आपकी जय हो। गुणास्तवाङ्कोदधिपारवर्तिनो, मतिः पुनस्तच्छफरीव मामकी। अहो महाधाष्टर्यमियं यदीहते, जडाशया तत् क्रमणं कदाशया॥५०॥ अर्थ :- हे नाथ! आपके गुण अङ्क समुद्र के भी पारगामी हैं, मेरी बुद्धि उस समुद्र की मछली के समान है जो जड़ बुद्धि बुरे अभिप्राय से उस समुद्र का उल्लंघन करना चाहते हैं, आश्चर्य है, यह उनकी महान् धृष्टता है। मनोऽणुधर्तुं न गुणांस्तवाखिला-न तद्धृतान्वक्तु मलं वचोऽपि मे। स्तुतेर्वरं मौन मतो न मन्यते, परं रसज्ञैव गुणामृतार्थिनी॥५१॥ अर्थ :- हे नाथ! मेरा छोटा सा मन आपके समस्त गुणों को धारण करने में और मेरा वचन भी धारण किए हुए गुणों का कथन करने में समर्थ नहीं है। अतः स्तुति से मौन अच्छा है, किन्तु गुण रूपी अमृत को चाहने वाली जीभ ही नहीं मानती है। सुरद्रुमाद्यामुपमा स्मरन्ति यां, जनाः स्तुतौ ते भुवनातिशायिनः। अवैमि तां न्यक्कृतिमेव वस्तुत-स्तथापि भक्तिर्मुखरीकरोति माम्॥५२॥ अर्थ :- हे नाथ लोग भुवनातिशायी आपकी स्तुति में कल्पवृक्ष आदि की उपमा को याद करते हैं । वस्तुतः उस स्तुति को मैं निन्दा के रूप में ही जानता हूँ, फिर भा भक्ति मुझे वाचाल बना रही है। अनङ्गरूपोऽप्याखलाङ्गसुन्दरो, रवेरदभ्रांशुभरोऽपि तारकः। अपि क्षमाभृन्न सकूटतां वह-स्यपारिजातोऽपि सुरद्रुमायसे॥ ५३॥ अर्थ :- हे नाथ! आप अङ्गरहित होने पर भी समस्त अङ्गों से सुन्दर हो (आप कामदेव के समान रूप वाले होने पर भी सर्वाङ्ग सुन्दर हैं), सूर्य से भी अधिक तेज के समूह होने पर भी तारा हो (सूर्य से भी अधिक आपकी किरणों का समूह है, फिर भी आप संसार सागर से पार उतारने वाले हैं), पर्वत होने पर भी शिखर को धारण नहीं करते हैं (क्षमाशील होने पर भी कपट धारण नहीं करते हैं), पारिजात न होने पर भी देववृक्ष के समान आचरण करते हैं (आपका शत्रुओं का समूह नष्ट हो गया है और आप दानशीलता रूप गुण में - कल्पवृक्ष का सा आचरण करते हैं)। विशेष :- इस पद्य में विरोधाभास अलङ्कार है। इदं हि षटखण्डमवाप्य भारतं, भवन्तमूर्जस्वलमेकदैवतम्। बिभर्ति षट्कोणकयन्त्रसूत्रणां, नृणां स्फुरत्पातकभूतनिग्रहे ॥५४॥ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-२] (२९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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