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स तत्र मन्दारमणीवकस्रवन्-मधुच्छटासौरभभाजने वने। अमुक्तपूर्वाचलहेलिलीलया, निविष्टमष्टापदसिंहविष्टरे ॥ ४४॥ दृशोरशेषामृतसत्रमङ्गिनामनङ्गनाट्योचितमाश्रितं वयः। वयस्यतापन्नसुपर्वसङ्गतं, रसङ्गतं तत्कृतनर्मकर्मसु ॥ ४५ ॥ शिरःस्फुरच्छत्रमखण्डमण्डन-धुसद्वधूधूनितचारुचामरम्। विशारदैर्वन्दितपादमादरा-दरातिरद्रेर्जगदीशमैक्षत ॥ ४६॥
त्रिभिर्विशेषकम् अर्थ :- उस (पर्वत के शत्रु) इन्द्र ने मन्दार पुष्पों से प्रवाहित होते हुए मधु की छटा से युक्त, सुगन्धि के पात्र उस वन में प्राणियों के दोनों नेत्रों में समस्त अमृत के आगार, कामदेव के नाटक के योग्य, यौवन पर आश्रित, मित्रत्व को प्राप्त देवों से मिले हुए, सुरों से किए हुए क्रीडा कर्मों में रस को प्राप्त, पूर्वांचल को न छोड़े हुए सूर्य की लीला से युक्त अष्टापद रूप सिंहासन पर बैठे हुए, शिर पर चमकते हुए छत्र रूप अखण्ड आभरण वाले, देवाङ्गनाओं के द्वारा जिन पर चँवर डुलाए जा रहे हैं तथा चतुर लोगों के द्वारा आदरपूर्वक जिनके चरणों की वन्दना की गई है, ऐसे श्री ऋषभदेव भगवान् को देखा।
कनीनिकादम्भमधुव्रतस्पृशां, दृशां शतैर्बिभ्रदिवाम्बुजस्त्रजम्।
ततस्त्रिलोकीपतिमेनमञ्चितुं, रयादुपातिष्ठत निर्जरेश्वरः॥ ४७॥ अर्थ :- अनन्तर पुतलियों मिष से भौंरों का स्पर्श करने वाली सैकड़ों आँखों से मानों कमल की माला को धारण करने वाले इन्द्र तीनों लोकों के स्वामी युगादि भगवान् की पूजा करने के लिए वेग से आए।
शिरः स्वमिन्दिदरयन् विनम्य तत्-पदाब्जयुग्मे लसदङ्गुलीदले।
इति स्फुरद्भक्तिरसोर्मिनिर्मलं, शचीपतिः स्तोत्रवचः प्रचक्रमे ॥४८॥ अर्थ :- इन्द्र ने जिनमें अंगुलियों का समूह सुशोभित हो रहा है, ऐसे उन चरणकमल युगल में नमस्कार कर अपने शिर को भ्रमर के समान करते हुए इस प्रकार प्रकट होते हुए भक्ति के रस रूप लहरों से निर्मल स्तुतिवचन प्रारम्भ किए।
अथ स्तोत्रवचः प्राह महामुनीनामपि गीरगोचरा-खिलस्वरूपास्तसमस्तदूषण।
जयादिदेव त्वमसत्तमस्तम-प्रभाप्रभावाल्पितभानुवैभव ॥ ४९॥ अर्थ :- महामुनियों की वाणी के भी अगोचर समस्त स्वरूप वाले, जिनके समस्त
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[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-२]
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