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________________ अर्थ : वृक्ष से गिरते हुए पुष्पों से मृदु दुपट्टे वाली जिस पर्वत की रजतशिला ने विलासियों के रति क्षण में जिन्होंने रोष का सहारा लिया है ऐसी मानिनी स्त्रियों के मानग्रहण रूप ग्रन्थि के भेदन करने में सहायता की। यदुच्चवृक्षाग्रनिवासिनीं फला- वलीमविन्दन्नुपलैः पुलिन्द्रकः । कपीनदः स्थानभिवृष्य तान् सुखं, समश्रुते तैः प्रतिशस्त्रितां रुषा ॥ ४० ॥ अर्थ :- भील, वृक्षों पर स्थित, क्रोध से प्रतिशस्त्रीकृत वानरों को पाषाणों से सम्मुख प्रहार कर जिस पर्वत के ऊँचे वृक्षों के शिखर पर निवास करने वाले फलों के समूह को न प्राप्त कर भी सुख प्राप्त करता है । इमाः सुवर्णैस्तुलिता इति क्षिपा- मुखे रविः स्वं प्रवसन् वसुन्यधात्। तदीयगुञ्जासु किमन्यथा हिम-व्यथां हरीणां सहिता हरन्ति ताः ॥ ४१ ॥ अर्थ :- रात्रि के प्रारम्भ में प्रवास पर जाते हुए सूर्य ने अपने तेजोद्रव्य को पर्वत की गुंजाओं में रख दिया। ये गुंजायें सुवर्ण के समान हो गयीं अन्यथा वे मिलकर वानरों की हिम सम्बन्धी पीड़ा का कैसे हरण करतीं? विशेष :सूर्य ने संध्या के समय अपने तेज को गुंजाओं में डाल दिया, इस कारण वानर एकत्र होकर गुंजाओं से तापते हैं। इस प्रकार उनकी शीत जाती ही है । जिनेशितुर्जन्मभुवः समीपगं, नगं तमाधाय मुदा दृगध्वगम् । सगोत्रपक्षक्षतिजातपातकैर्विमुक्तमात्मानममंस्त वासवः ॥ ४२ ॥ अर्थ :- उस इन्द्र ने जिनेन्द्र भगवान् की जन्मभूमि के समीपस्थित अष्टापद पर्वत को हर्ष से दृष्टिमार्गगोचर करके पर्वतों के पंखों के छेदन से उत्पन्न पापों से अपने को विमुक्त माना । विशेष पहले पर्वत पंखों से उड़कर गाँव और नगरों के ऊपर गिर जाते थे । इन्द्र ने वज्र से पर्वत के पंख काट डाले, ऐसी लोकरूढ़ि है । इन्द्र जिनेन्द्र भगवान् की जन्मभूमि के समीप अष्टापद पर्वत को देखकर पर्वतों के पंख काटने के पाप से छूट गया । अन्य प्राणी भी महातीर्थ के दर्शन कर अपने गोत्र में उत्पन्न लोगों के वंश का छेदन करने रूप से मुक्त हो सकते हैं। जैसे - पाण्डवादिक शत्रुञ्जय तीर्थ पर सिद्ध हुए । अथ प्रभोर्जन्मभुवं पुरन्दरो ऽसरच्छरच्चन्द्रिकयेव दृष्टया । ययाचिरादुत्कलिकाभिराकुलं, प्रसादमासादयदस्य हृत्सरः ॥ ४३ ॥ पाप अर्थ :- अनन्तर इन्द्र प्रभु की जन्मभूमि को गया । जिस जन्मभूमि के देखने से इसका चिरकाल की उत्कण्ठा से व्याप्त हृदय रूप सरोवर निर्मलता को प्राप्त हो गया । [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - २ ] Jain Education International - For Private & Personal Use Only (२७) www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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