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शीतल वाणी है उसे छिपाने के कारण जो मलिन छवि होती है, वह सभी के लिए
अनिष्ट ही होती है ।
यदौषधिभिर्ज्वलिताभिरर्दितं तमः सपत्नीभिरवेक्ष्य सर्वतः । तमस्विनी गच्छति लाञ्छनच्छलात्, कलानिधिं किं दयितं स्थितेः कृते ॥ ३५ ॥
अर्थ :- दीप्त सपत्नी औषधियों के द्वारा सब ओर से पीड़ित अन्धकार को देखकर रात्रि कलङ्क के बहाने से क्या मर्यादा के लिए चन्द्रमा रूप पति के समीप जाती है ? विशेष :औषधियों का और रात्रि का पति चन्द्रमा है। रात्रि अपनी सन्तान अंधकार को दीप्त औषधियों से सब प्रकार से पीड़ित देखकर उलाहना देने के लिए अपने पति चन्द्रमा के पास गई । लाञ्छन के बहाने से वह आज भी चन्द्रमा में दिखाई देती है । पतन्ति ये बालरवेः प्रगे करा, यदुल्लसद्गैरिक धातुसानुषु । क्रियेत तैरेव विसृत्य चापला - दिलाखिला गैरिकरङ्गिणी न किम् ॥ ३६ ॥ अर्थ :- प्रातःकाल बालसूर्य की जो किरणें जिस पर्वत के सुशोभित होते हुए गैरिक धातुओं से युक्त शिखरों पर पड़ती है, उन्हीं किरणों से चपल भाव से विस्तार को प्राप्त समस्त पृथ्वी गैरिक रंग वाली क्या नहीं की जाती है ? अपितु की ही जाती है ? विशेष :- बालक प्राय: क्रीडासक्त होता है, अतः स्थिरभाव को त्याग कर बालसूर्य किरणों ने समस्त पृथ्वी को लाल बना दिया ।
यदीयगारुत्मतभित्तिजन्मभिः, करैरवंच्यन्त तथा हरित्प्रभैः ।
न चिक्षिपुर्मुग्धमृगा मुखं वचि - द्यथाऽनलीकेषु तृणांकुरेष्वपि ॥ ३७॥ अर्थ :भोले-भाले मृग जिस पर्वत की गरुड़ रत्नों की भित्ति से जन्य हरी प्रभा वाली किरणों से उस प्रकार ठगे गए कि सत्य तृणाङ्कुरों के ऊपर भी वे मुख को क्वचित् नहीं
लगाते थे ।
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शरन्निशोन्मुद्रितसान्द्रकौमुदी - समुन्मदिष्णुस्फटिकांशुडम्बरे । निविश्य यन्मूर्द्धनि साधकैरसा-धिकैर्महोऽन्तर्बहिरप्यदृश्यत ॥ ३८ ॥
अर्थ
शरत्कालीन रात्रियों में खुली हुई घनी चाँदनी से वृद्धि को प्राप्त स्फटिक मणियों की किरणों का समूह जिसके शिखर पर बैठकर रसाधिक साधकों के द्वारा अध्यात्मतेज बाहर और अन्दर दिखाई दिया।
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(२६)
तरुक्षरत्सूनमृदूत्तरच्छदा, व्यधत्त यत्तारशिला विलासिनाम् । रतिक्षणालम्बितरोषमानिनी -स्मयग्रहग्रन्थिभिदे सहायताम् ॥ ३९॥
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[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - २ ]
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