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________________ होते अर्थ :- अनन्तर इन्द्र ने जिसके प्रदेश बाहर निकले हुए हैं, . मेघों के समूह से स्थूल हुए . पर्वत के मध्य भाग जहाँ है, जो उन्नत है, लटकती हुई रस्सियों का सा आचरण करने वाले जहाँ जल के झरने हैं, ऐसे अष्टापद नामक पर्वत श्रेष्ठ को दूर से देखा । द्वितीय अर्थ :- (हाथी के पक्ष में) अनन्तर इन्द्र ने जिसके दाँत बड़े थे, बहुत से भौरों से युक्त मद बिखेरने वाले कपोलों से उन्नत, लटकी हुई रस्सियों का सा आचरण करने वाले जहाँ जल के झरने हैं ऐसे पर्वतीय हाथी को दूर से देखा । शिरो ममात्प्रतिमानविंशति-श्चर्युताध्यास्यवतंसयिष्यति । इति प्रमोदानुगुणं तृणध्वज- व्रजस्य दम्भात्पुलकं बभार यः ॥ ३१ ॥ अर्थ :- जो अष्टापद मेरा शिर चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाओं का आश्रय कर कर्णाभूषण बनाएगा, इस प्रकार प्रमोद के योग्य तृणद वज नामक बाँसों के समूह के बहाने से रोमाञ्च धारण कर रहा था । यदुच्च शृङ्गाग्रजुषोऽपि खेचरी-गृहीतशिम्बाफलपुष्पपल्लवाः । न सेहिरे स्वानुपभोगदुर्यशो, द्रुमा मरुत्प्रेरितमौलिधूननैः ॥ ३२ ॥ अर्थ :- जिसके ऊँचे शिखरों के अग्रभाग का सेवन करने पर भी विद्याधरियों के द्वारा जिनके छीमी, फल, फूल और पल्लव ग्रहण किए गए हैं, ऐसे वृक्षों ने वायु से प्रेरित शिर के कम्पन के बहाने से अपने उपभोग रहित होने की अपकीर्ति को सहन नहीं किया। निवासभूमीमनवाप्य कन्दरे - ष्वपि स्फुटस्फाटिकभित्तिभानुषु । तले तमस्तिष्ठति यन्महीरुहां, शितिच्छविच्छायनिभान्निशात्यये ॥ ३३ ॥ अर्थ :- अन्धकार रात्रि की समाप्ति हो जाने पर जिन वृक्षों के नीचे काली कान्ति वाली छाया के बहाने से स्पष्ट रूप से स्फटिक की भित्ति रूपी किरणों वाली कन्दराओं में भी निवासभूमि को न पाकर ठहरता है । प्रतिक्षिपं चन्द्रमरीचिरेचिता मृतांशुकान्तामृतपूरजीवना । वनावली यत्र न जातु शीतगोः, पिधानमैच्छन्मलिनच्छविं घनम् ॥ ३४॥ अर्थ :प्रत्येक रात्रि में चन्द्रमा की किरणों से द्रवित किया चन्द्रकान्त मणियों का अमृतपूर ही जिसका जीवन है, ऐसी वनपंक्ति जहाँ पर कभी भी मलिन छवियुक्त, चन्द्रमा को आच्छादित करने वाले मेघ की इच्छा नहीं करती है। विशेष शीतगो पिधानं मलिनच्छवि का एक अन्य अर्थ है तब शीतगो की व्युत्पत्ति होगी - शीता गौ ( वाणी) यस्य स शीतगु:' अर्थात् जिसकी : [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग -२ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only (२५) www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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