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दिवस्पते द्यौरहमस्मि सांप्रतं, न सांप्रतं मोक्तुमुपेत्य मां तव।
इति स्ववर्णाम्बुदगर्जितेन सा, द्रुतं व्रजन्तं किमु तं व्यजिज्ञपत्॥ २६॥ अर्थ :- आकाश ने अपने वर्ण वाले मेघ की गर्जना से उसे शीघ्र जाते हुए क्या हे दिवस्पते ! मैं द्यौ हूँ, तुम्हारा मेरे समीप आकर छोड़कर जाना उचित नहीं है, इस प्रकार निवेदन किया। विशेष :- धु शब्द स्त्रीलिङ्ग-स्वर्ग और आकाशवाची है । तुम दिवस्पति हो, मैं द्यौ होने के कारण तुम्हारी भार्या हूँ । अतः मेरे समीप आकर तुम्हारा इस प्रकार जाना उचित नहीं
है।
पथि प्रथीयस्यपि लंघिते जवा-दवाप स द्वीपमथादिमं हरिः।
विभाति यो द्वीपसरस्वदुत्करैः, परैः परीतः परिवेषिचन्द्रवत् ॥ २७॥ अर्थ :- अनन्तर वह इन्द्र वेगपूर्वक विस्तृत भी मार्ग लाँघने पर आदि द्वीप (जम्बू द्वीप) को प्राप्त हुआ। जो द्वीप द्वीप और समुद्रों के समूह से परिधियुक्त चन्द्रमा के समान सुशोभित होता है।
इहापि वर्ष समवाप्य भारतं, बभार तं हर्षभरं पुरन्दरः।
घनोद्रयोऽलं घनवमलंघनं, श्रमं शमं प्रापयति स्म योऽद्भुतम् ॥ २८॥ अर्थ :- इन्द्र ने जम्बूद्वीप के मध्य में भी भारतवर्ष को पाकर उस हर्ष के समूह को धारण किया। प्रचुर उदय वाला अद्भुत् हर्ष मेघ के मार्ग के लंघन के श्रम को शान्त करता है। विनीलरोमालियुजो वनीघनो, गभीरनाभेर्बहु निम्न पल्वलः।
बभूव शच्या अपि मध्यदेशतो-ऽस्य मध्यदेशः स्फुटमीक्षितो मुदे॥ २९॥ अर्थ :- कृष्ण रोमराजियुक्त, बहुत बड़े वनों से घना, गहरे मध्यभाग वाले बहुत सारे गम्भीर तालाबों से युक्त स्पष्ट रूप से देखा गया मध्यदेश इन्द्र के लिए शची के मध्यदेश से भी अधिक हर्ष के लिए हुआ। विशेष :- जहाँ पर जिनेन्द्र भगवान्, चक्रवर्ती तथा अर्द्धचक्रवर्ती जैसे प्रमुख महापुरुषों का जन्म हुआ, वह भरत क्षेत्र सम्बन्धी मध्यदेश इन्द्राणी के उदरप्रदेश से भी अधिक इन्द्र के प्रमोद के लिए हुआ।
ददर्श दूरादथ दीर्घदन्तकं, घनालिमाद्यत्कटकान्तमुन्नतम्। प्रलम्बकक्षायितनीरनिर्झरं, सुरेश्वरोऽष्टापदमद्रिकुञ्जरम्॥ ३०॥
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[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-२]
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