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________________ विवाहहर्म्य त्रिजगत्प्रभोर्युवा-मवाप्स्यथः किं न मणिप्रदीपताम्। इति प्रलोभ्याह्वयदिन्दुभास्करौ, कृतातिथेयौ पथि सङ्गतौ हरिः॥ २१॥ अर्थ :- इन्द्र ने मार्ग में मिले हुए अतिथि सत्कार किए हुए चन्द्रमा और सूर्य को, क्या तुम दोनों तीनों लोकों के स्वामी भगवान् ऋषभदेव के विवाहमण्डप में मणिमय दीपकपने को प्राप्त नहीं करोगे? इस प्रकार प्रलोभन देकर बुलाया। निमेषविचेषिसमग्रदृग्मये, प्रिये सदा सन्निहितेऽत्र वज्रिणि। क्वचिन्न या मुह्यति सा किमायसी, शचीति तं वीक्ष्य जगुः शशिप्रियाः॥२२॥ अर्थ :- चन्द्रमा की पत्नियाँ रोहिणी आदि वज्र को धारण करने वाले, निमेष रहित समस्त लोचनों वाले उस इन्द्र को देखकर आपस में इस प्रकार कहने लगीं। क्या वह शची लोहे की बनी है जो इस प्रिय इन्द्र रूप पति के सदा समीप रहने पर किसी प्रकार से मूढ़पने को धारण नहीं करती है। विलोचनैरूर्ध्वमुखैर्वियत्युडू-रधोमुखैर्वार्धिजलेऽतिनिर्मले। स विप्रकीर्णा अवलोकयन्मणी-रणीयसीमप्यविदन्न मुद्भिदम्॥२३॥ अर्थ :- आकाश में ऊर्ध्वमुख नेत्रों से ऊपर नक्षत्रों को देखते हुए, अधोमुख नेत्रों से अत्यन्त निर्मल समुद्रजल में फैली हुई मणियों को देखते हुए उस इन्द्र ने थोड़े से भी हर्षभेद को प्राप्त नहीं किया। अविश्रमे वर्त्मनि तस्य यायिनः, श्रमस्य यः कोऽपि लवोऽजनिष्ट सः। अनोदि दुग्धोदधिशीकरैस्तटा, -चलस्खलद्वीचिचयोत्पतिष्णुभिः॥ २४॥ अर्थ :- जिसमें विराम नहीं है, ऐसे मार्ग में जाने वाले उस इन्द्र के श्रम का जो कोई भी अंश उत्पन्न हुआ, वह श्रम का अंश तटवर्ती पर्वतों पर स्खलन करती हुई कल्लोलों के समूह से उड़ने वाले क्षीर समुद्र के जलकणों से दूर हो गया। विशेषार्थ :- इन्द्र के आधे राजू प्रमाण मार्ग का अतिक्रमण कर आते हुए जो श्रम हुआ, वह शीतल क्षीर समुद्र के जलकणों से दूर हो गया। प्रभूतभौमोष्मभयंकरः स्फुर-न्महाबलेनाञ्जनभञ्जनच्छविः। निजानुजाभेदधियामुना घनः, पयोधिमध्यान्निरयन्निरक्ष्यत ॥ २५॥ अर्थ :- इन्द्र के द्वारा प्रभूत भूमि सम्बन्धी उष्मा से भयङ्कर वायु के द्वारा कृष्णकान्ति मेघ अपने छोटे भाई नारायण की अभेदबुद्धि से समुद्र के मध्य से निकलता हुआ दिखाई दिया। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-२] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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