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________________ शिरांसि सर्पन रुचकादिभूभृतां, तदग्रसिद्धायतनस्थितार्हतः। विलम्बभीरुर्मनसैवसोऽनम-त्रयं न भिन्ते विबुधेशिता यतः॥१६॥ अर्थ :- विलम्ब से डरने वाले उस इन्द्र ने रुचक आदि पर्वतों के शिखरों पर गमन करते हुए उन पर्वतों के अग्र भाग पर स्थित सिद्धों के आयतनों में स्थित अहिन्तों को मन से ही नमस्कार किया; क्योंकि इन्द्र (अथवा विद्वन्मुख्य) न्याय का उल्लंघन नहीं करते हैं। न तस्य वज्रेऽपि विलोकितेऽधरै-धेरैर्बभूवे क्वचिदञ्जनादिभिः। तदीयमौलौ प्रतिमा अकत्रिमाः, सदासते यज्जगदेकपालिनाम्॥१७॥ अर्थ :- इन्द्र का वज्र देखने पर भी अञ्जनादि पर्वत किसी भी प्रकार से दुःखी नहीं हुए; क्योंकि उन पर्वतों के मस्तक पर जगत् के एकमात्र पालन करने वाले जिनेन्द्रों की अकृत्रिम प्रतिमायें सदा स्थित हैं। विशेष :- हिन्दू पुराणों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि इन्द्र ने एक बार पर्वतों के पंख काट डाले थे। कवि के अनुसार अञ्जनादि पर्वत इन्द्र को देखकर किञ्चित् भी क्षुब्ध नहीं हुए; क्योंकि उनके शीर्ष पर शाश्वत जिन प्रतिमायें विराजमान थीं। - रुचाञ्जनक्ष्माधरमौलिमूलयां-तरा तमस्यञ्चति सूचिभेद्यताम्। निरुद्धचक्षुर्विषयः स चिन्मयीं, चरन् सहस्त्राभ्यधिकां दृशं दधौ॥१८॥ अर्थ :- मध्य में अञ्जन पर्वत के मस्तक पर जिसकी उत्पत्ति है, ऐसी कान्ति से अन्धकार के सूचि-भेद्यपने को प्राप्त करने पर जिसके नेत्रों का विषय रुक गया है ऐसे इन्द्र ने जाते हुए हजार से भी अधिक नेत्र धारण कर लिए। लतामयागारशया रिरंसया, सुराः सदारा ददृशुस्तमध्वगम्। स तानपश्यन्नतिवेगतस्त्रपा-जडान चक्रेऽचलमूर्धिचाचलिः॥१९॥ अर्थ :- स्त्री सहित, क्रीडा की इच्छा से लतामय आगार में शयन करने वाले देवों ने उस इन्द्र को मार्ग में स्थित देखा। पर्वत के मस्तक पर चलनशील इन्द्र ने उन देवों को अतिवेग के कारण न देखते हुए लज्जा से मूर्ख नहीं बनाया। दिवाकरस्योर्ध्वमधश्च रेजिरे, नभोऽजिरे ये प्रखरांशुदण्डकाः। अमी महेन्द्रस्य दिवोऽवरोहतः, करावलम्बत्वमिव प्रपेदिरे ॥ २०॥ अर्थ :- जो सूर्य की प्रखर किरणें रूप दण्ड आकाश रूपी आंगन में सुशोभित हो रहे थीं वे आकाश से उतरते हुए सौधर्म इन्द्र के लिए मानो हाथ के सहारेपन को प्राप्त हो रही थीं। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग २] For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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