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अर्थ :- उन भगवान् ऋषभदेव सम्बन्धी गीतों से जिनका हृदय हरण किया गया है, इस कारण जिन्होंने अपने शरीर की समस्त चेष्टाओं को छोड़ दिया है तथा स्वभाव से जिनके निरीक्षण निश्चल हैं ऐसे देवों ने वहाँ पर क्षण भर के लिए चित्रलिखित प्रतिमा का आचरण नहीं किया, ऐसा नहीं है, अपितु चित्रलिखित प्रतिमा के समान ही आचरण किया।
विभुं तमद्यापि निशम्य तन्मुखादखण्डकौमारकमाकरं श्रियाम्।
मृतः स कामः किमिति प्रजल्पिते, सुरीसमूहे मुमुचे रतिं रतिः ॥११॥ अर्थ :- देवियों के मध्य लक्ष्मी की खान उन विभु (भगवान्) को आज भी तुम्बरु
और नारद के मुख से सुनकर, वह काम क्या मृत्यु को प्राप्त हो गया है? ऐसा कहे जाने पर रति ने समाधि को छोड़ दिया।
त्रिलोकभर्तुः परमार्हतो विद-नथो विवाहावसरं सुरेश्वरः।
विसृज्य सभ्यानुपसर्जनीकृता-परक्रियः प्रास्थित वैक्रियाङ्गभृत् ॥१२॥ अर्थ :- अनन्तर वैक्रियिक शरीर को धारण करने वाले इन्द्र ने तीनों लोकों के स्वामी । परमहित श्री ऋषभदेव के विवाह का अवसर जानकर सदस्यों को छोड़कर दूसरी क्रियाओं को गौण कर प्रस्थान किया।
स्वयंप्रयाणे वद किं प्रयोजनं, समादिशेष्टं तव कर्म कुर्महे।
इमाः सुराणामनुगामिनां गिरो, यियासतस्तस्य ययुर्न विघ्नताम्॥१३॥ अर्थ :- अनुगामी देवों की 'हे स्वामिन् ! कहिए, स्वयं जाने का क्या प्रयोजन है, ये वाणियाँ जाने की इच्छा वाले इन्द्र के विघ्न को प्राप्त नहीं हुईं।'
व्रजैः सुराणामनुवव्रजे व्रज-नसावनुक्त्वाप्यतिरिक्तभक्तिभिः।
बलात् किमामन्त्रयते बलाहकः, स यद् बलाकापटलैः परीयते॥१४॥ अर्थ :- इन्द्र का बिना कहे ही जाते हुए अतिरिक्त भक्ति युक्त देवों के समूह ने अनुसरण किया। मेघ बलात् क्या बगुलियों के समूह को बुलाता है? (अर्थात् नहीं बुलाता है) जिस कारण वह मेघ बगुलियों के समूह से घिरा रहता है। .. नचिक्लिशे क्वापि विभोः प्रयोजनात्, स योजनानामयुतानि लंघयन्।
पदे पदे प्रत्युत तद्विवन्दिषा, रसेन कृष्टो गतिलाघवं दधौ ॥ १५ ॥ अर्थ :- स्वामि के कार्य से दश हजार योजन लाँघते हुए इन्द्र ने किसी भी स्थान पर खेद प्राप्त नहीं किया, अपितु पद पद पर उन भगवान् की वन्दना करने की इच्छा रूप इस से आकृष्ट होकर गमन में शीघ्रता को धारण किया अर्थात् चलने में शीघ्रता की। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-२]
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