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________________ श्रवः श्रियं प्रापुरमी प्रभोर्गुणै-र्वयं वृथा भारकृतः किमास्महे। मुदा शिरः स्वं धुनतां सभासदा, मितीव पेते किल कर्णवेष्टकैः॥५॥ अर्थ :- सभासदों के हर्ष से अपना सिर हिलाने पर, इन सभासदों ने प्रभु के गुणों से ही कान की शोभा को प्राप्त किया, व्यर्थ ही भार करने वाले हम कैसे ठहरें, मानों इसलिए कानों के कुण्डल गिर गए। यशोऽमृतौघः प्रससार तन्मुखा-त्तथा प्रभोः पार्षदनिर्जरैर्यथा। अयं श्रवः कूपकहृत्सरः स्वमान्, दृगध्वनावामि मुदश्रुदम्भतः॥६॥ अर्थ :- तुम्बरु और नारद के मुख से श्री ऋषभदेव का यश रूपी अमृत का समूह कर्ण रूप कूप और हृदय रूपी सरोवरों में समाने में समर्थ न होने से जिस प्रकार फैला उसी प्रकार पार्षद देवों के द्वारा यह यश रूपी अमृत का समूह हर्ष के आँसुओं के बहाने से दृष्टिमार्ग से वमन किया जाता था (प्रकट किया जाता था)। ध्रुवं दृशोश्च श्रवसोश्च संगतं, प्रवाहवान्तरमस्ति देहिनाम्। श्रुतिं गतो गीतरसो दृशोदभून्, मुदश्रुदम्भाद् धुसदां किमन्यथा॥ अर्थ :- मनुष्यों के दोनों नेत्र और कानों का पवनमार्ग मिला हुआ है, यह बात निश्चित है, अन्यथा देवताओं के कान में गया हुआ गीतरस हर्ष के आँसुओं के बहाने से नेत्र से क्या बाहर निकलता? कथामृतं पीतवतां विभोरभू-द्यथा ऋभूणां श्रवसो शं सुखम्। तथा दृशोरर्तिरदोदिदृक्षया, न जन्तुरेकान्तसुखी क्वचिद्भवे ॥ ८॥ अर्थ :- प्रभु ऋषभदेव की कथा रूप अमृत का पान करते हुए देवों के कानों को जिस प्रकार अत्यधिक सुख हुआ वैसे ही उन्हें न देखने के कारण आँखों को पीड़ा हुई। प्राणी संसार में कहीं भी नियम से सुखी नहीं होता है। प्रकृत्य कृत्यान्तरशून्यतां सद-स्यदस्यगीतेन तदा दिवौकसाम्। ध्वनेः खजन्यत्वमसूचितं यथा, यदुद्भवो यः स तदाभचेष्टितः॥९॥ अर्थ :- सभा में तम्बरु और नारद के गीत ने उस अवसर पर कार्यान्तर की शून्यता का आरम्भ कर शब्द के आकाश से उत्पन्न होने का कथन किया। जो जिससे उत्पन्न होता है, वह उसके सदृश चेष्टा वाला होता है। यदि आकाश शून्य कहा जाता है तो उससे उत्पन्न शब्द भी शून्यताकारी होता है, यह बात युक्त ही है। तदीयगीताहितहत्तया समं, समुज्झिताशेषशरीरचेष्टितैः । स्वभावनिःस्पन्दनिरीक्षणैः क्षणं, न तत्र चित्रप्रतिमायितं न तैः॥१०॥ (२०) [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-२] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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