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२. द्वितीयः सर्गः
तदा हरेः संसदि रूपसम्पदं, प्रभोः प्रभाजीवनयौवनोदिताम् । अगायतां तुम्बरुनारदौ रदो- च्छलन्मयूखच्छलदर्शिताशयौ ॥ १ ॥
अर्थ :- उस अवसर पर जिन्होंने दाँतों से निकलती हुई किरणों के बहाने से अपने अभिप्राय को प्रकट किया है, ऐसे तुम्बरु और नारद ने इन्द्र की सभा में श्री ऋषभदेव के कान्तिलक्षण जीवन रूप यौवन से उत्पन्न रूप सम्पदा के विषय में गाया ।
प्रभुः प्रभाम्भोनिधिरामरी सभा, किमु स्तुमस्तौ यदि गातुमुद्यतौ । मणिर्महार्घ्यः शुचिकान्ति काञ्चनं, कला कलादस्य कलापि वर्ण्यताम् ॥२ ॥ अर्थ :- प्रभु ऋषभदेव प्रभा के सागर हैं, सभा देवसभा है, यदि वे तुम्बरु और नारद गाने के लिए उद्यत हैं तो हम क्या स्तुति करें, मणि अत्यधिक कीमती होता है, सुवर्ण पवित्र कान्ति वाला होता है, सुवर्णकार की कला (विशिष्ट) होती है, अतः कला का भी वर्णन किया जाय।
गुणाढ्या गेयविधिप्रवीणया, न वीणया गीतमदोन्वगायि न । सरस्वती पाणितलं न मुञ्चती, किमौचितीतश्चवते कदापि सा ॥ ३ ॥
अर्थ :- गुणों से समृद्ध, गेय विधि में प्रवीण वीणा से नारद और तुम्बरु सम्बन्धी गीत का अनुसरण नहीं होता है, ऐसा नहीं है। सरस्वती के हस्त तल को न छोड़ती हुई क्या वह वीणा कभी भी औचित्य गुण से च्युत होती है ? अर्थात् नहीं होती है ।
निनिन्दुरेकेऽमरधेनुजं पयो, मरुदुमाणामपरे फलावलिम् । परेऽर्णवालोडनसाधितां सुधां प्रभोः पिबन्तश्चरितामृतं सुराः ॥ ४ ॥
अर्थ :- प्रभु के चरित्र रूपी अमृत का पान करते हुए कुछ देवों ने कामधेनु के दूध की निन्दा की, दूसरे देवों ने कल्पवृक्षों के फलसमूह की निन्दा की, अन्य देवों ने समुद्रमन्थन से प्रकटित अमृत की निन्दा की।
विशेष :- देवों के लिए श्री युगादिदेव ऋषभदेव का चरित्ररूपी अमृत कामधेनु के दूध, कल्पवृक्ष के फल तथा अमृत से भी अधिक सरस हुआ।
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - २ ]
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