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अर्थ :- कामदेव के जीतने वाले होने पर भी स्त्री वर्ग में रूप की लक्ष्मी से उसी कामदेव की भ्रान्ति उत्पन्न करते हुए बाल्यावस्था से अग्रेसर यौवन लक्षण रूप विशिष्टता को प्राप्त कराए हुए शरीर के सौन्दर्य से नारियों के नेत्रों में चंचलता से अपवाद का विनाश करते हुए वे भगवान् विविध प्रकार की क्रीडारसों से कुछ काल बिताते थे। इति श्रीमद्अञ्चल गच्छ में कविचक्रवर्ति श्रीजयशेखरसूरि विरचित
श्री जैन कुमारसंभव की प्रथम सर्ग की व्याख्या समाप्त हुई।
सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छवि
र्धम्मिलादिमहाकवित्वकलनाकल्लोलिनीसानुमान्॥ वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते,
सर्गों जैनकुमारसम्भवमहाकाव्येऽयमाद्योऽभवत् ॥ १॥ कवियों के समूह रूप मुकुट में हीरे की छवि वाले, धम्मिल्ल कुमारचरितादि महाकवित्व से युक्त नदी के प्रवाह के लिए पर्वत के तुल्य, वाणी से प्रदान किए गए वर वाले श्री जयशेखर सूरि चिरकाल तक विजयशील होते हैं। उनके द्वारा स्वयं निर्मित जैन कुमारसंभव महाकाव्य में यह आद्य सर्ग समाप्त हुआ।
इति श्रीमद् अञ्चलगच्छ में कविचक्रवर्ती श्री जयशेखरसूरि विरचित
श्री जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में प्रथम सर्ग समाप्त हुआ।
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[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१]
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