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________________ रक्षा करने के कारण वही पिता हैं , पुण्यशाली लागों को पुण्य रूप जावनदान करने के कारण वही जीवन हैं, समस्त रीति, नीति और स्थितियों से प्रजाओं का पालन करने से वही प्रभु हैं। योगीश्वरोऽभिनवमन्यतनुप्रवेश-मभ्यस्तवानुदरकन्दरगः स्वमातुः। बालो युवाप्यनपहाय तनूं स याव-द्वेदं विवेश हृदयानि यदीक्षकाणाम्॥७४॥ अर्थ :- अपनी माता के उदर रूपी कन्दरा में चूँकि वे स्थित थे अत: योगीश्वर होते हुए उन्होंने अभिनव परकीय शरीर में प्रवेश का अभ्यास किया। उन्होंने बाल्यावस्था और युवावस्था में शरीर का परित्याग किए बिना ही यथालाभ आलोकन करने में तत्पर लोगों के हृदय में प्रवेश किया। अप्राप्यकारि नयनं न मृषाह जैनः, सम्पृच्य चेद्भगवतो वपुषा विदध्युः। सेवामुपासकदृशस्तदिमा अपीह, दध्युः कराद्यवयवा इव दिव्यभूषाम् ॥ ७५॥ अर्थ :- जैन नेत्र को अप्राप्यकारी झूठ नहीं कहता है । यदि उपासक की दृष्टि भगवान् के शरीर की सेवा करती तो हाथ आदि अवयवों के समान (कंकण, मुकुट आदि) दिव्यभूषा को भी धारण करती। हृदि ध्याते जातः कुसुमशरजन्मा ज्वरभरः, श्रुते चान्याघा वचनविरुचित्वं श्रवणयोः । दृशोर्दष्टे स्पष्टेतरविषयगत्यामलसता, तथापीह स्नेहं दधुरमरवध्वो निरवधिम् ॥ ७६ ॥ अर्थ :- भगवान् का हृदय में ध्यान करने पर कामज्वर का समूह उत्पन्न हो गया। इन स्वामी के विषय में सुनने पर दोनों कानों की अन्य की प्रशंसा करने के लिए प्रयुक्त वचनों के प्रति आलस्य स्पष्ट रूप से हो गया। भगवान् का दर्शन होने पर दृष्टि की दूसरे विषय के प्रति गति की अलसता स्पष्ट हो गई, फिर भी देवाङ्गनायें भगवान् के प्रति अवधिरहित स्नेह को धारण कर रही थीं। विशेष :- जिनका ध्यान करने पर ज्वर, सुनने में अरुचि और दृष्टि में आलस्य उत्पन्न होता है, वहाँ स्नेह कैसे धारण किया जाता है, इस प्रकार विरोध है। नारीणां नयनेषु चापलपरीवादं विनिघ्नन् वपुः, सौन्दर्येण विशेषितेन वयसा बाल्यात्पुरोवर्तिना। निर्जेतापि मनोभवस्य जनयंस्तस्यैव वामाकुले, भ्रान्तिं कालमसौ निनाय विविधक्रीडारसैः कञ्चन॥७७॥ (१७) [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सग-१] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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