________________
स्वर्गायनैः स्वर्गिपतेः सभायामाविष्कृते कीर्त्यमृते तदीये।
तत्यानतस्तृप्यति नाकिलोके, सुधा गृहीतारमृते मुधाभूत् ॥ ६९॥ अर्थ :- स्वर्ग के गायक तुंबरु, नारद आदि यक. द्वारा इन्द्र की सभा में उन भगवान् के कीर्ति रूपी अमृत के प्रकट करने पर उसके पान से स्वर्गवासी देवों के तृप्त होने पर अमृत गृहीता के बिना व्यर्थ हो गया।
मेरौ नमेरुद्रुतले तदीयं, यशो हयास्यैरुपवीण्यमानम्।
श्रोतुं विशालापि सुरैः समेतैः, संकीर्णतां नन्दनभूरलम्भि॥ ७० ॥ अर्थ :- मेरु पर्वत पर नम्ररु वृक्ष के नीचे घोड़े के मुख के समान जिनका मुख है ऐसे गन्धर्वो अथवा किन्नरों के द्वारा वीणा से गाए जाते हुए उन भगवान् के यश को सुनने के लिए एकत्रित हुए देवों के द्वारा विशाल भी नन्दन वन की भूमि सङ्कीर्णता को प्राप्त हो गयी।
यशोऽमृतं तस्य निपीय नागां-गनास्थकुण्डोद्भवमद्भुतेन।
शिरो धुनानस्य भुजङ्ग भर्तु- भार एवाभवदन्तरायः॥ ७१॥ अर्थ :- उन स्वामी के सों की स्त्रियों के मुख रूप कुण्डों से उत्पन्न यश रूप अमृत का पान कर शेषनागाधिराज के आश्चर्य से शिर हिलाने पर पृथ्वी का भार ही विघ्न रूप हुआ।
धत्तां यशोऽस्याखिललोलगर्व-सर्वस्वसर्वंकषताभिमानम्।
गुणैर्दृढव्यूढघनैर्निबद्ध-मपि त्रिलोकाटनलम्पटं यत्॥ ७२॥ अर्थ :- उन भगवान् का गुणों से दृढ़ता से विशला घने रूप में निबद्ध भी तीनों लोगों में भ्रमण करने का रसिक यश समस्त चंचल पदार्थों के गर्व को सब प्रकार से कसौटी पर कसने के अभिमान को धारण करता था।
स एव देवः स गुरुः स तीर्थं, स मङ्गलं सैष सखा स तातः।
स प्राणितं स प्रभुरित्युपासा-मासे जनैस्तद्गतसर्वकृत्यैः॥ ७३॥ अर्थ :- उन भगवान् में सब कुछ कृत्यों की स्थिति मानने पर लोगों ने वही देव हैं, वही गुरु हैं , वही तीर्थ हैं, वही मङ्गल हैं, यह वही सखा है, वही तात हैं , वही जीवन हैं, वही स्वामी हैं, इस प्रकार उनका सेवन किया। विशेषार्थ :- भगवान् के सुर, असुर और नरों आदि के चौंसठ इन्द्रों द्वारा चरणकमल सेवित किए जाते हैं, अत: वे देव हैं। लोगों को आचार, व्यवहार, विद्या, शिल्प, विज्ञान आदि का प्रकाशन करते हैं, अत: भगवान् गुरु हैं । संसार रूपी समुद्र से तारने के कारण वे तीर्थ हैं, समस्त पापों का क्षय करने के कारण वे मङ्गल हैं, आश्रित जनों के प्रशंसनीय कर्मोदय के कारक होने से वही मित्र हैं, भव्यजनों की अन्तरङ्ग शत्रुओं से
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org