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अचलित जिनकी कान्ति का लेशमात्र भी प्राप्त करने पर हेम ने लोक में 'सुवर्ण' इस ख्याति को प्राप्त किया।
द्युम्नं जगभृत्युपयोगि गुप्तं, यच्छैशवऽभूत् परमार्थदृष्टेः।
तद्यौवनेनोत्सववत् प्रकाश-मकारि माद्यत्प्रमदेन तस्य ॥ ६४॥ अर्थ :- संसार का भरण पोषण करने में समर्थ जो बल मोक्ष के प्रति दृष्टि वाले उन भगवान् ऋषभदेव के शैशव अवस्था में गुप्त था, उसे उत्सव के समान जिससे प्रमदायें मत्त होती हैं अथवा जिससे हर्ष से मतवाले होते हैं, ऐसे यौवन ने प्रकट किया था।
यूनोऽपि तस्याजनि वश्यमश्व-वारस्य वाजीव सदैव चेतः। ___ सशङ्कमेवोरसिलोऽप्यनङ्ग - स्तदङ्गजन्मा तदुपाचरत्तम्॥ ६५॥ अर्थ :- उन भगवान् का चित्त घुड़सवार के अधीन घोड़े के समान सदैव वश में रहता था। वह चित्त का पुत्र बलवान् भी कामदेव उन भगवान् की सशंक होकर सेवा करता था।
पश्चादमुष्यामरवृन्दमुख्याः, पट्टाभिषेकं प्रथयाम्बभूवुः।
प्रागेव पृथ्व्यां प्रससार दुष्ट-चेष्टोरगीवज्रमुखः प्रतापः॥ ६६॥ अर्थ :- देवसमूहों के प्रमुखों (सुरेन्द्रों) ने इनके पट्टाभिषेक का विस्तार किया। इनका दुष्टों की चेष्टा रूप नागिनी के लिए गरुड़ के समान प्रताप पृथिवी पर पहले से ही फैल रहा था।
आनर्चुरिन्द्रा मकरन्दबिन्दु -संदोहवृत्तस्नपनावयत्नम्।
मन्दारमाल्यैर्मुकुटाग्रभाग - भ्रष्टैनमन्तोऽनुदिनं यदंघी॥ ६७॥ अर्थ :- इन्द्रों ने मकरन्द बिन्दुओं के समूह से जिनका स्नान किया गया है, ऐसे जिनके दोनों चरणों की मुकुटों के अग्रभाग से गिरी हुई मन्दार पुष्पों की मालाओं से निरन्तर नमन करते हुए बिना यत्न के ही अर्चना की।
आमोक्षसौख्यांहतिसन्धयास्मि-नात्मातिरेकेऽभ्युदिते पृथिव्याम्।
अशिश्रियन्मन्दरकन्दराणि, संजातलज्जा इव कल्पवृक्षाः॥ ६८॥ अर्थ :- इन भगवान् के विद्यमान रहने पर मोक्षावधि जो सुख है उसके दान के विषय में प्रतिज्ञा के कारण अपने से अधिक पृथिवी पर अभ्युदित होने पर कल्पवृक्षों ने मेरु की गुफाओं का आश्रय लिया। विशेषार्थ :- कल्पवृक्ष अपने से भी अधिक दाता भगवान् को देखकर लज्जा से मेरु गुफा में छिप गया।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-१]
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