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विलाप किया, वह दरिद्र पुत्री, निर्नामिका के लिए तप का फल देने के लिए जानना चाहिए; क्योंकि सज्जनों की समस्त क्रियायें दूसरों के उपकार की हेतु होती हैं ।
स वज्रजंघो नृपतिर्भवन् भवा- नवाप हालाहलधूमपायिताम् । यदङ्गजादङ्गजतस्ततस्तवा-धुनापि विश्वासबहिर्मुखं मनः ॥ ६० ॥ अर्थ :- हे भगवान् ! उन आपने वज्रजंघ राजा होकर जो पुत्र से हालाहल धूमपायिता को प्राप्त किया। अतः अब भी आपका मन अङ्गज (कामदेव) के विश्वास से बहिर्मुख
है ।
विशेष
भव में
अङ्गज शब्द से कामदेव और पुत्र भी कहा जाता है । आपने वज्रजंघ राजा के पुत्र से मरण प्राप्त किया । पश्चात् तीर्थंकर जन्म में आपका मन अङ्गज अर्थात् काम के प्रति विश्वासरहित हो गया ।
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उपास्य युग्मित्वमथाद्यकल्पग-सुधाशनीभूय भिषग् भवानभूत् । मुने: किलासं व्यपनीय यः स्वकं, कलाविलासं फलितं व्यलोकत ॥ ६१॥ अर्थ :- हे नाथ! अनन्तर आप युगलपने का भली भाँति सेवन कर प्रथम देव लोक में देव होकर वैद्य हुए, जिसने मुनि के कुष्ट रोग को दूर कर अपने कलाविलास को फलित देखा ।
अथेयिवानच्युतनाकिधाम चे-दवातरस्तत्किमिह प्रभोऽथवा ।
लयं लभन्ते विबुधा हि नाभिधा-गुणेषु यत्ते परमार्थदृष्टयः ॥ ६२ ॥ अर्थ :- अनन्तर हे प्रभो यदि तुम अच्युत नाम वाले देवलोक को प्राप्त हुए तो पृथ्वी पर क्यों अवतीर्ण हुए अथवा देव (या विद्वान्) नाम गुणों में विश्राम प्राप्त नहीं करते हैं । क्योंकि वे देव (अथवा विद्वान्) परमार्थ दृष्टि वाले होते हैं ।
विशेष :जिसमें च्युत नहीं होते हैं, ऐसे अच्युत स्वर्ग को जाकर वे कैसे अवतीर्ण हुए ? किन्तु इन्द्रगोप के समान उसका अच्युत यह नाममात्र है, अतः आपने उसे छोड़ दिया ।
निरीक्ष्यतां तीर्थकृतः पितुः श्रियं, न चक्रिसम्पद्यपि तोषमीयुषा । तदर्थमेव प्रयतं ततस्त्वया, त्रपा हि तातोनतया सुसूनुषु ॥ ६३॥ अर्थ :हे नाथ! अनन्तर तीर्थंकर पिता की उस लक्ष्मी को देखकर तुमने चक्रवर्ती की सम्पदा पर भी सन्तोष प्राप्त नहीं किया । निश्चित रूप से सत्पुत्रों की पिता से हीनता लज्जा की बात है ।
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - २ ]
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