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महातनुः स्थूलशिरा विलोहितेक्षणः परस्यासनकासरः पुरः । पलाययन् वाहनवाजिनो व्यधा-तुरङ्गिणां प्राजनविश्रमं क्षणम् ॥ ६॥ अर्थ :- अन्य देव के वाहन भूत घोड़े दौड़ाते हुए जिसका बहुत बड़ा शरीर है, स्थूल मस्तक है, लाल दोनों नेत्र हैं ऐसे आसनभूत भैंसे ने घुड़सवारों को क्षण भर के लिए धमकाकर विश्रान्त किया ।
विशेष
पहले निश्छिद्रता का वर्णन किया। इस पद्य में पलायन कहा, इस प्रकार वचन विरोध होता है, परन्तु मार्ग में कहीं संकीर्णता कहीं असंकीर्णता के कारण कोई विरोध नहीं है !
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प्रभोर्विवाहाय रयाद्यियासतां, वितेनिरे प्रत्युत सादिनां श्रमम् । नभोनदीतीरतृणार्पिताननाः, कशाप्रहारैः पथि यानवाजिनः ॥ ७ ॥
अर्थ श्री ऋषभदेव के विवाह के लिए वेगपूर्वक जाने के इच्छुक आकाशगङ्गा के तीर पर स्थित तृणों पर मुँह डालने वाले यानभूत घोड़ों ने मार्ग में कोड़ों के प्रहारों के कारण अश्वारोहियों को थका दिया।
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विशेष :आकाशगङ्गा के तीर पर तृण कैसे उद्गमित होते हैं, ऐसा किसी के द्वारा पूछे जाने पर उत्तर यह है कि जैसी आकाशगङ्गा होती है, वैसे ही तृण जानना चाहिए।
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अथवा लोक की रूढ़ि से ऐसा जानना चाहिए। कविशिक्षा में कहा गया है
जालमाद्य नभोनव्यमंभोजाद्यं नदीष्वषि
इस दृष्टि से आगे का वर्णन भी निर्दोष है।
मिथो निरुच्छ्वासविहारिणां सुधा-भुजां भुजालंकृतिघट्टनात्तदा । मणिव्रजो यत्र पपात ते पयः, क्षितिश्च रत्नाकरखानितां गते ॥ ८ ॥ अर्थ :- उस अवसर पर परस्पर में उच्छ्वास के बिना भी विहार करने वाले देवों की भुजाओं के अलङ्कारों की रगड़ से जहाँ पर मणियों का समूह गिरा वहाँ पर वे जल और पृथिवी रत्नाकर और खान संज्ञा को प्राप्त हुए ।
विशेष :
यहाँ पर अनुमान अलङ्कार है ।
भवेत् प्रयाणे भुवि विघ्नकृन्मृगी-दृशां नितम्बस्तनभारगौरवम् । अधोऽवतारे तु सुपर्वयौवतै- स्तदेव साहायककारि चिन्तितम् ॥ ९॥ अर्थ :- स्त्रियों का नितम्ब और स्तनों के भार की गुरुता पृथिवी पर चलते समय विघ्नकारी होते हैं किन्तु देव युवतियों के नीचे उतरने में वही सहायक माना गया है।
(५२)
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-४ ]
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