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४. चतुर्थः सर्गः
अथात्र पाणिग्रहणक्षणे प्रति-क्षणं समेते सुरमण्डलेऽखिल । इलातलस्यातिथितामिवागता-ममंस्त सौधर्मदिवं दिवः पतिः ॥ १ ॥
अर्थ :- अनन्तर इन्द्र ने इस पाणिग्रहण के अवसर पर समस्त देवसमूह के प्रतिक्षण समागत होने पर सौधर्म स्वर्ग को पृथिवी तल का अतिथि समूह ही आया हो ऐसा माना । नवापि वैमानिकनाकिनायका, अधस्त्यलोकाधिभुवश्च विंशिनः । शशी रविर्व्यन्तरवासिवासवा, द्विकाधिकात्रिंशदुपागमन्निह ॥ २ ॥
अर्थ :नव वैमानिक देवों के नायक, बीस पाताल लोक के स्वामी, चन्द्रमा, सूर्य, व्यन्तरेन्द्र इस प्रकार बत्तीस इस मण्डप में आए।
तदा ह्रदालोडनशाखिदोलन-प्रियामुखालोकमुखो मखांशिनाम् ।
रसः प्रयाणस्य रसेन हस्तिनः, पदेन पादान्तरवद्वयलुप्यत ॥ ३ ॥ अर्थ :- तब देवों का जलाशय में अवगाहन, वृक्षों का हिलना, प्रिया के मुख के आलोक की जिसमें प्रधानता है ऐसा रस प्रयाण के रस से जैसे हाथी के पैर में द्विपद चतुष्पदादि के पैर लुप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार लुप्त हो गया ।
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विनिर्यतां स्वस्वदिवो दिवौकसां स कोऽपि घोषः सुहृदादिहूतिभूः । अभूद्वहायस्यपि यत्र गोव्रजं, विमिश्रितं कः प्रविभक्तुमीश्वरः ॥ ४ ॥
अर्थ :- अपने अपने स्वर्ग से निकलते हुए देवों का मित्रादि के बुलाने से उत्पन्न वह कोई कौलाहल (गोकुल) हुआ। जहाँ वाणी समूह के (अथवा धेनु समूह के ) एकीभूत होने पर आकाश में भी पृथक् करने में कौन समर्थ होगा? अर्थात् कोई नहीं ।
अमीषु नीरन्ध्रचरेषु कस्यचिन्निरीक्ष्य युग्यं हरिमन्यवाहनम् । इभो न भीतोऽप्यशकत्पलायितुं, प्रकोपनः सोऽपि न तं च धर्षितुम् ॥
अर्थ :- अन्य देव का वाहन हाथी किसी देव के यान भूत सिंह को देखकर भयभीत होने पर भी भागने में समर्थ नहीं हुआ। वह सिंह भी देवों में निश्छिद्र चलने पर ईर्ष्यालु होता हुआ उस हाथी को धमकाने में समर्थ नहीं हुआ।
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ४ ]
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