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क्षुद्रघंटिकाओं ने उछलते हुए चतुर घोड़ों की भूषा रूप घर्घरी की शङ्का को उत्पन्न कर दिया। विशेष :- जहाँ पर घोड़े चलाए जाते हैं, वहाँ पर घर्घरी घोष (हिनहिनाहट का शब्द) होता ही है।
नखजितमणिजालौ स्वश्रियापास्तपद्मौ, गतिविधुरितहंसौ मार्दवातिप्रवालौ। तदुचितमिह साक्षीकृत्य देवीस्तदंही
सपदि दधतुराभां यत्तुलाकोटिवृत्ताम् ॥ ८०॥ अर्थ :- यहाँ पर देवी को साक्षी बनाकर नखों से मणिसमूह को जीतने वाले अपनी शोभा से कमलों को निराकृत करने वाले, गति से हंसों को जीतने वाले, सौकुमार्य से नए अंकुरों का अतिक्रमण करने वाले उन (कन्याद्वय) के दोनों चरण तत्काल ही तराजू की डंडी के दोनों छोरों की उपमा के (अग्रभाग से उत्पन्न) शोभा को धारण करें, यह बात उचित ही है।
एवं स्नातविलिप्तभूषिततनू उद्धृत्य कन्ये उभे मध्ये मातगृहं निवेश्य दिविषद्योषा अदोषासने।
गायन्त्यो धवलेषु तद्गुणगणं तद्वक्त्रवीक्षोत्सव.. च्छेदानाकुलनिर्निमेषनयनास्तस्थुः स्मरन्त्यो वरम्॥८१॥ अर्थ :- धवल गृहों पर दोनों कन्याओं के गुण समूह का गान करती हुई, उनके मुखावलोकन रूप उत्सव में अन्तराल के प्रति आकुलता से रहित निर्निमेष नयनों वाली देवाङ्गनायें स्नान से भूषित शरीर वाली दोनों कन्याओं को स्नान स्थान से लाकर मातृगृह के मध्य में निर्दोष आसन पर बैठाकर वर का स्मरण करती हुई ठहरीं।
सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छविर्धम्मिलादिमहाकवित्वकलनाकल्लोलिनीसानुमान्॥ वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते,
सर्गो जैनकुमारसम्भवमहाकाव्ये तृतीयोऽभवत्॥ ३॥ ___ कवियों के समूह रूप मुकुट में हीरे की छवि वाले धम्मिलकुमारचरितादि महाकवित्व से युक्त नदी के प्रवाह के लिए पर्वत के तुल्य, वाणी से प्रदान किए गए वर वाले श्री जयशेखर सूरि चिरकाल तक विजयशील होते हैं। उनके द्वारा स्वयं निर्मित जैनकुमारसम्भवमहाकाव्य में तृतीय सर्ग समाप्त हुआ। इस प्रकार श्रीमदञ्चलगच्छ में कविचक्रवर्ती श्रीजयशेखरसूरि विरचित श्री जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का तृतीय सर्ग समाप्त हुआ।
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[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-३]
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