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संयोज्य दोषोच्छ्यमल्पतायां, शुचिप्रभां प्रत्यहमेधयन्ती।
तारं तपः श्रीरिव सातिपट्वी, जाड्याधिकत्वं जगतो न सेहे॥ ४५ ॥ अर्थ :- दोषों के विस्तार को अल्पता में मिलाकर प्रतिदिन उस पवित्र और निर्मल जिसकी प्रभा है, अति विदुषी उस सुमङ्गला ने अत्यधिक रूप से तपो लक्ष्मी के समान मूर्खत्व (अथवा जलाधिक्य) को सहन नहीं किया।
परान्तरिक्षोदकनिष्कलङ्का, नाम्ना सुनन्दा नयनिष्कलङ्का।
तस्मै गुणश्रेणिभिरद्वितीया, प्रमोदपूरं व्यतरद् द्वितीया॥ ४६॥ अर्थ :- आकाश के जल के समान निष्कलङ्क नीति रूपी सुवर्ण की लङ्कास्वरूप, गुणों की श्रेणियों से अद्वितीय दूसरी सुनन्दा नामक पत्नी ने श्री ऋषभदेव को हर्षसमूह प्रदान किया।
तयोः सपत्न्योरपि यत्प्रसन्न-हृदोर्मदोद्रेकविविक्तमत्योः।
अभूद्भगिन्योरिव सौहृदं स, सुस्वामिलाभप्रभवः प्रभावः॥४७॥ अर्थ :- प्रसन्न हृदय के मदोद्रेक से रहित उन दोनों सौतों में भी दो बहिनों के समान जो मैत्री हुई वह अच्छे स्वामी के लाभ से उत्पन्न प्रभाव था। ____आत्मोचितामालिमनाप्तवत्यौ, त्रिलोकभर्तुर्हदयंगम ते।
सुरालयस्वामिनिबद्धरुच्या, शच्यापि सख्या समलजिषाताम्॥४८॥ अर्थ :- तीनों लोकों के स्वामी श्री ऋषभदेव के हृदय में प्रविष्ट वे सुमङ्गला और सुनन्दा अपने योग्य सखी को न प्राप्त करते हुए देवलोक के स्वामि इन्द्र के प्रति बद्ध अभिलाष शची से भी लज्जित हुईं।
तयोरहंपूर्विकया निदेशं, विधिसमानासु गताभिमानम्।
स्यगं गतास्वप्यमराङ्गनासु, ययौ न जातु प्रशमं विवादः॥४९॥ अर्थ :- सुमङ्गला और सुनन्दा के आदेश को 'मैं पहले, मैं पहले' इस प्रकार अहंपूर्वकता से देवाङ्गनाओं में अहंकार चले जाने पर कुछ करने की इच्छुक स्वर्ग गामिनियों में भी विवाद शान्ति को प्राप्त नहीं हुआ।
उपाचर वे अपि तुल्यबुद्धया, प्रभुः प्रभापास्त तमःसमूहः।
उच्चावचां न स्वरुचिं तनोति, भास्वनिलीनालिषु पद्मिनीषु॥५०॥ अर्थ :- जिसने अपनी प्रभा से अन्धकार समूह का विनाश किया है ऐसा सूर्य के छिप जाने पर एवं कमलों में भौंरों के छिप जाने पर श्री ऋषभ स्वामी ने दोनों ही
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[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६]
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