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स्त्रियों का सदृश भाव से सेवन किया । विषम अपनी कान्ति या अभिलाषा का विस्तार नहीं किया ।
अर्थ
श्री ऋषभदेव ने पाँच संख्या वाले विषयों में जब जिस
वस्तु को
षड्ऋतु
के
योग्य चाहा तभी उनके इशारे और अभिप्राय के ज्ञाता इन्द्र के द्वारा वह वस्तु दूर से लाई गई ।
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अर्थ
ऋतूचितं पञ्चसु गोचरेषु, यदा यदाशंसि जिनेन वस्तु । तदिंगिताकूतविदोपनिन्ये, तदैव दूरादपि वासवेन ॥ ५१ ॥
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श्री ऋषभदेव की कभी वन के मध्य दोनों वधुओं के साथ विहार करने की इच्छा जानकर ही मानों वसन्तु ऋतु ने पत्तों और पुष्पों से समस्त वृक्षों को विभूषित
किया।
कदापि नाथं विजिहीर्षुमन्त र्वणं विबुध्येव समं वधूभ्याम् ।
पत्रैश्च पुष्पैश्च तरूनशेषा-विभूषयामास ऋतुर्वसन्तः ॥ ५२ ॥
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शैत्यं सरस्यां मृदुता लतायां, सौरभ्यमब्जे ललनैः प्रकाश्य ।
आनन्दयन्निन्द्यदिगुद्धवोऽपि देवं समेतत्रिगुणः समीरः ॥ ५३ ॥
,
अर्थ
- निन्द्य दिशा (दक्षिण दिशा) से उद्भूत होने पर भी शीतल, मन्द और सुगन्ध रूप तीन गुणों से युक्त वायु सरोवर में क्रीडाओं से शीतलता का प्रकाशन कर लता में मृदुता, कमल में खेलों से सुगन्धि प्रकट कर श्री ऋषभदेव को आनन्द प्रदान करने लगा ।
वल्ली विलोला मधुपानुषङ्गं, वितन्वती सत्तरुणाश्रितास्य ।
पुरा परागस्थितितः प्ररूढा, पुपोष योषित्सु चलत्वबुद्धिम् ॥५४॥
अर्थ :- चञ्चल भौंरों के संसर्ग को करती हुई प्रशस्य वृक्ष के आश्रित होकर पूर्व में पराग की स्थिति से पूर्व उत्पन्न लता ने श्री ऋषभदेव की स्त्रियों में चलत्व बुद्धि का पोषण किया ।
निविश्य गुल्मानि महालतानां, विश्रम्य पत्रर्धिमिलारुहाणाम् । मड्ङ्क्त्वा सदारः सरसां जलानि, कृतार्थयामास कृती वने सः ॥ ५५ ॥ अर्थ :- वह विद्वान् भगवान् ने स्त्री सहित वन में महालताओं और झाड़ियों में बैठकर, वृक्षों की पत्र सम्पत्ति में विश्राम कर, तालाब के जलों को आलोडित कर कृतार्थ किया। विभोर्व्यतायन्त विवाहकाले, यत्पल्लवैस्तोरणमङ्गलानि । चूतस्य तस्याविकलां फलर्धि-मपप्रथत् साधु ततस्तपर्तुः ॥ ५६ ॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य,
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सर्ग-६ ]
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