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अर्थ :- आम के पल्लवों ने श्री ऋषभदेव स्वामी के विवाह के समय तोरणमङ्गलों का विस्तार किया। अनन्तर ग्रीष्म ऋतु ने आम की सम्पूर्ण फल सम्पदा का ठीक प्रकार से विस्तार किया।
दोषोन्नतिर्नास्य तमोमयीष्टा, दृष्टेति तामेष शनैः पिपेष।
पुपोष चाहस्तदमुष्य पूजा-पर्यायदानादुदितद्युतीति ॥ ५७॥ अर्थ :- ग्रीष्म ने ऋतु इन भगवान् की तमोमयी (पापमयी) दोषोन्नति (पक्ष-रात्रि की उन्नति) दिखाई दे रही थी (जो कि) इष्ट नहीं थी इस कारण उस दोषोन्नति को मन्दमन्द रूप से चूर्ण-चूर्ण कर दिया और दिन भगवान् की पूजा के अवसर के दान से उदित द्युति वाला है, इस कारण पुष्ट हुआ।
... उदग्रसौधाग्रनिलीनमल्ली-वल्लीसुमश्रेणिसुगन्धिशय्यः। . श्रीखण्डलेपावृतचन्द्रपाद-स्पर्शः कृशा ग्रीष्मनिशाः स मेने ॥५८॥ अर्थ :- ऊँचे महल के अग्रभाग में स्थापित विकसित लता के फूल की श्रेणियों से जिसकी शय्या सुगन्धित है ऐसे भगवान् ने चन्दन के लेप से आवृत्त चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श से ग्रीष्मकाल की रात्रियों को क्षीण माना।
पुष्ट्यर्थमीशध्वजतैकस-ककुद्मतः किं जलभृजलौघैः।
उदीततण्यामवनी समन्ता-द्वितन्वती प्रावृडथ प्रवृत्ता॥ ५९॥ अर्थ :- अनन्तर मेघों के जल के समूहों से पृथिवी को उत्पन्न हुए तृण समूह से युक्त करते हुए स्वामी के ध्वज का एक स्थान जो वृषभ है, उसकी पुष्टि के लिए वर्षा प्रवृत्त हुई। . या वारिधारा जलदेन मुक्ताः, सान्द्राः शिरस्यस्य बहिर्विहारे;
असस्मरंस्ता हरिहस्तकुम्भ-नीराभिषेकं शिशुतानुभूतम्॥ ६०॥ अर्थ :- मेघ ने भगवान् के सिर पर जो घनी जल की धारायें बाहर विहार के समय छोड़ी थीं उन्होंने जन्माभिषेक के समय अनुभव किए हुए इन्द्र के हाथ के कलश से किए जल के अभिषेक का स्मरण करा दिया।
असौ बहिर्बर्हिकुलेन क्लृप्तं, मृदङ्गवद्गर्जति वारिवाहे।
निभालयन्नाट्यमदान्मुदा तां, दृशं धनाढ्यैरपि दुर्लभा या॥६१॥ अर्थ :- भगवान् ने बाह्य मृदङ्ग के समान मेघ के गर्जने पर मयूरों के समूह से रचित नाट्य को हर्ष से देखते हुए जो प्रदान किया, वह (दृष्टि) धनियों को भी दुर्लभ है।
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[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६]
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