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लोकोपकाराय स लोकनाथः, कृत्वा क्षमाभृद्भवसिन्धुरोधम्।
तदा तदभ्यासवशाद्विधत्ते-ऽद्यापि क्षमाभृद्भवसिन्धुरोधम्॥६२॥ अर्थ :- वह लोकनाथ उस अवसर पर लोकोपकार के लिए पर्वतों से उत्पन्न नदियों का बन्ध करके उस अभ्यास के वश आज भी क्षमा को धारण करने वाले (साधुओं) के संसार समुद्र के तट का कार्य करते हैं।
प्रसादयन्त्यम्बुपयोजपुञ्ज, प्रबोधयन्त्या विधुमिद्धयन्त्या। _अस्याभिषेकार्चनवक्त्रदास्या-ऽधिकारतोऽसौ शरदोपतस्थे॥ ६३॥ अर्थ :- वे भगवान् जल को स्वच्छ करते हुए, कमलों के समूह को विकसित करते हुए. चन्द्रमा को समृद्ध करते हुए शरद से आश्रित हुए।
पद्धैर्घनोपाधिभिराकुले प्राक्, लोके तिरोभावमुपागतो यः।
अहो स हंसः सहसा प्रकाशी-बभूव भास्वन्महसा विपङ्के॥६४॥ अर्थ :- जो हंस पहले जिनकी मेघ उपाधियाँ हैं, ऐसे कीचड़ अथवा पापों से व्याप्त लोक में अदृश्यपने को प्राप्त हो गया। आश्चर्य है वहीं हंस (अथवा आत्मा) सूर्य के तेज से कीचड़ रहित होकर (अथवा पाप रहित होकर) प्रकट हुआ।
करैः श्रमच्छेदकरैः शरीर-सेवां मणीकुट्टिमशायिनोऽस्य।
विधुर्विविक्ते विदधत्प्रसाद-पूर्वामपूर्वां श्रियमाप युक्तम्॥६५॥ अर्थ :- चन्द्रमा ने भगवान के मणिखचित भूमि पर शयन करने पर निर्जन स्थान में श्रम का छेद करने वाली किरणों से अथवा हाथ से शरीर की सेवा करते हुए प्रसाद (स्वच्छता, प्राञ्जलता) जिसके पूर्व में है, ऐसी अपूर्व शोभा को प्राप्त किया।
मनाग मुखश्री: परमेश्वरस्य, जिहीर्षिता यैः शरदा मदाढ्यैः।
विधाय मन्तोः फलमन्तमेषु, पद्मेषु भेजे प्रशलर्तुरेनम्॥६६॥ अर्थ :- शरद ऋतु ने मद से परवश कमलों से श्री ऋषभदेव प्रभु की थोड़ी सी मुख की शोभा का हरण करना चाहा। इन कमलों के विनाश रूप अपराध के फल को करके हेमन्त ऋतु ने इन भगवान् की सेवा की। विशेष :- शरद में कमल शोभायुक्त होते हैं और हेमन्त ऋतु में दाह को प्राप्त होते हैं।
भृशं महेलायुगलेन खेला-रसं रहस्तस्य विलोकमाना। पौषी पुपोषालसतां गतौ यां, निशा न साद्यापि निवर्ततेऽस्याः॥६७॥
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६]
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