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अर्थ :- अत्यधिक रूप से भगवान् की महिलायुगल के द्वारा एकान्त में क्रीडा रस को देखती हुई पौष की रान बीत जाने पर जो आलस्य वद्धिगत हआ वह इस रात्रि के अब भी दूर नहीं होता है।
नक्तं जगत्कम्पयतो हसन्ती, या शीतदैत्यस्य बलं बिभेद
नेतुः पुरःस्थोचितमासचक्रा, सा कृष्णवाश्रयतां बिभर्तु ॥६८॥ अर्थ :- जिसने (शिशिर ऋतु ने) हँसते हुए रात्रि में जगत् को कँपाते हुए शीत रूपी दैत्य की सामर्थ्य का भेदन कर दिया। वह चक्र को प्राप्त करने वाली स्वामी के सामने ठहर रही है अत: यह उचित ही है कि वह अग्नि की आश्रयता (पक्ष में कष्ण के मार्ग की आश्रयता) को धारण करे।
अथ प्रभाह्रासकरी विमोच्य, दुर्दक्षिणाशां शिशिरतुरंशुम्।
अचीकरद्दीप्तिकरं प्रणन्तु-मिवोत्तरासङ्गमसङ्गमेनम् ॥ ६९॥ अर्थ :- अनन्तर शिशिर ऋतु ने आसक्ति रहित इन भगवान् को मानों प्रणाम करने के लिए ही तेज को नाश करने वाली उस दुष्ट दक्षिण दिशा को छुड़ाकर दीप्ति को करने वाले सूर्य को उत्तर दिशा का सङ्ग कराया।
भौ प्रसुप्ते निशि शीतवश्यं, यदम्बु कम्बुच्छवि बन्धमाप।
तज्जाग्रतादिष्ट इवाह्नि तेन, भानुः स्वभावं स्वकरैर्निनाय॥७० अर्थ :- शंख के समान निर्मल जो जल रात्रि में प्रभु के सो जाने पर शीत के वश होकर बन्धन को प्राप्त हो गया था, सूर्य ने उसे दिन में अपनी किरणों से मानों भगवान के जाग जाने पर उनके आदेश से ही अपनी स्वाभाविकता पर ला दिया।
शीतेन सीदत्कुसुमासु युष्मा-स्वर्चास्य देवस्य मदेकनिष्ठा।
इति स्फुटत्पुष्परदा तदानीं, शेषा लताः कुन्दलता जहास॥७१॥ अर्थ :- जिसके पुष्प रूपी दाँत प्रकट हो रहे हैं ऐसी कुन्दलता ने उस शिशिर ऋतु में शेष लताओं की, आप लोगों के शीत से फूल सूख जाने पर इन भगवान् की अर्चा एक मेरे ऊपर ही आश्रित है, इस प्रकार हँसी की।
तत्तादृगाहारविहारवासो - निवासनि शितशीतभीतिः।
शरीरसौख्येन स शैशिरीणां, निशां न सेहे विपुलत्ववादम्॥७२॥ अर्थ :- उस प्रकार के आहार, विहार, वस्त्र और निवास से जिसने शीत के भय को समाप्त कर दिया है ऐसे भगवान् ने शिशिर कालीन निशा को शरीर के सुख के कारण विस्तीर्णभाव से सहन नहीं किया। (९८)
। जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६]
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