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इति ऋतूचितखेलनकैर्न कै-हतहदेश्वरतोऽस्य यथारुचि।
सुकृतसूरसमुत्थधृतिप्रभा-परिचिता अरुचनखिला दिनाः॥७३॥ अर्थ :- ऋतु के योग्य खिलोनों से जिसका हृदय हरण कर लिया गया है ऐसे भगवान् के स्वेच्छा से विचरण करते रहने पर पुण्य रूपी सूर्य से उत्पन्न समाधि रूप प्रभा से सेवित समस्त दिन सुशोभित हुए।
कौमारकेलिकलनाभिरमुष्य पूर्व-लक्षाः षडेकलवतांनयतः सुखाभिः।
आद्या प्रिया गरभमेणदृशामभीष्टं, भर्तुः प्रसादमविनश्वरमाससाद ॥ ७४॥ अर्थ :- सुख पूर्वक कुमारावस्था की क्रीडाओं की वशवर्ती होकर छः लाख पूर्व को एक लव के समान व्यतीत करते हुए भगवान् की आदि प्रिया सुमङ्गला ने मृगनयनी स्त्रियों को अभीष्ट, स्वामी की कृपारूप अविनश्वर गर्भ प्राप्त किया।
सूरिः श्रीजयशेखरः कविघटाकोटीरहीरच्छवि-, र्धम्मिल्लादिमहाकवित्वकलनाकल्लोलिनीसानुमान्। वाणीदत्तवरश्चिरं विजयते तेन स्वयं निर्मिते,
सर्गो जैनकुमारसम्भवमहाकाव्ये ऽभवत् षष्ठकः॥६॥ कवियों के समूह रूप मुकुट में हीरे की छवि वाले, धम्मिल्लकुमारचरितादि महाकवित्व के प्रवाह के लिए पर्वत के तुल्य, वाणी से प्रदान किए गए वर वाले श्री जयशेखर सूरि चिरकाल तक विजयशील होते हैं। उनके द्वारा स्वयं निर्मित जैनकुमारसम्भव महाकाव्य में षष्ठ सर्ग समाप्त हुआ। इस प्रकार श्रीमदञ्चलगच्छ में कविचक्रवर्ती श्री जयशेखरसूरि विरचित
जैनकुमारसम्भव महाकाव्य के षष्ठ सर्ग की व्याख्या समाप्त हुई।
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(जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६]
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