________________
७. सप्तमः सर्गः
अथ प्रथमनाथस्य, प्रिया तस्य सुमङ्गला।
अध्युवास निजं वास-भवनं यामिनीमुखे ॥१॥ अर्थ :- अनन्तर प्रथम नाथ श्री ऋषभदेव की प्रिया सुमङ्गला ने सायंकाल अपने निवास भवन में निवास किया।
यत्र ज्वलत्प्रदीपानां, प्रभाप्राग्भारभापितम्।
धृत्वा धूमशिखेत्याख्यां-तरं दूरेऽगमत्तमः॥ २॥ अर्थ :- जिस निवास भवन में जलते हुए दीपकों की प्रभा समूह से डरा हुआ अन्धकार धूमशिखा इस दूसरे नाम को धारण कर दूर चला गया।
, यत्र नीलामलोल्लोचा-मुक्ता मुक्ताफलस्त्रजः।
बभुर्नभस्तलाधार-तारकालक्षक क्षया॥ ३॥ अर्थ :- जिस आवास में नीले, निर्मल चंदोबों में बद्ध मोतियों की माला आकाश तल जिनका आधार है ऐसे लाखों ताराओं के समान सुशोभित हुई।
सौवर्ण्यः पुत्रिका यत्र, रत्नस्तम्भेषु रेजिरे।
अध्येतुमागता लीलां, देव्या देवाङ्गना इव॥४॥ अर्थ :- जहाँ देवी सुमङ्गला की लीला का अध्ययन करने के लिए आई हुई देवाङ्गनाओं के समान रत्नमयी स्तम्भों में सोने की बनी हुई पुतलियाँ सुशोभित हुईं।
दह्यमाना काकतुण्डा, यत्र धूमैर्विसृत्वरैः।
स्वपंक्तिं वर्णगन्धाभ्यां, निन्युर्वन्तराण्यपि॥ ५॥ अर्थ :- जहाँ पर काले अगुरुओं ने जलते हुए फैलने वाले धूमों से दूसरी लकड़ियों । को भी वर्ण और गंध से अपनी पंक्ति में ले लिया।
उत्पित्सव इवोत्पक्षा, यत्र कृत्रिमपत्रिणः। आरेभिरे लोभयितुं, बालाभिश्चारुचूणिभिः॥६॥
(१००)
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग७]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org