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________________ अर्थ :- जिस आवास में कृत्रिम पिच्छों वाले पक्षियों ने बालिकाओं के सुन्दर भक्षों से मानों ऊपर उड़ने के इच्छुक से होकर लुब्ध करना आरम्भ कर दिया। यन्मणिक्षोणिसंक्रान्त-मिन्दुं कन्दुकशङ्कया। आदित्सवो भननखा, न बालाः कमजीहसन्॥७॥ अर्थ :- जिसके आवास की मणिनिर्मित पृथिवी में प्रतिबिम्बत चन्द्रमा में गेंद की शङ्का से ग्रहण करने की इच्छुक टूटे हुए नाखूनों वाली बालायें जहाँ किसे नहीं हँसाती थीं। व्यालम्बिमालमास्तीर्ण-कुसुमालि समन्ततः। यददृश्यत पुष्पास्त्र-शस्त्रागारधिया जनैः॥ ८॥ अर्थ :- लोगों ने जहाँ माला लटक रही है, चारों ओर फूलों का समूह लटकाया गया __ है ऐसे आवास गृह को कामदेव के शस्त्रागार की बुद्धि से देखा। कौतुकी स्त्रीजनो यत्र, पुरः स्फाटिकभित्तिषु। स्पष्टमाचष्ट पृष्ठस्थ-चेष्टितान्यनुबिम्बनैः॥ ९॥ अर्थ :- जहाँ पर कौतुकी स्त्रियों ने सामने स्फटिक की दीवालों पर प्रतिबिम्बनों से । पीछे स्थित चेष्टाओं को स्पष्ट कहा। लतागुल्मोत्थितो यत्रा-हरज्जालाध्वनागतः। मुक्ताधिया मरुच्चौरः, स्वेदबिन्दून् मृगीदृशाम्॥१०॥ अर्थ :- जहाँ पर लताओं और झाड़ियों से उठे हुए वायु रूपी चोर ने मृगनयनी स्त्रियों । को पसीने की बिन्दुओं को मोती मानकर हरण कर लिया। वीक्ष्य यत्परितोऽध्यक्षं, वनं सर्वर्तुकं जनः। श्रद्धेयमागमोक्त्यैवाभिननन्द न नन्दनम्॥ ११॥ अर्थ :- लोगों ने जिसके आवास के चारों ओर सब ऋतुओं में साधारण प्रत्यक्ष रूप से वन को देखकर मात्र आगम की उक्ति से ही श्रद्धा के योग्य नन्दन वन की प्रशंसा नहीं की। श्वेतोत्तरच्छदं तत्र, दोलातल्पमुपेयुषी। हंसीं गङ्गातरङ्गात्त-रङ्गामभिबभूव सा॥ १२॥ अर्थ :- सुमङ्गला ने उस आवास में श्वेत चादर से युक्त झूलती हुई शय्या को प्राप्त करते हुए गङ्गा की तरङ्गों में जिसने आनन्द को ग्रहण किया है ऐसी हंसी को तिरस्कृत कर दिया। [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-७] (१०१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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