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दक्षिणं तमुरीचक्रे , विवाहे भगवानिति।
वामा वाममुपष्टभ्य, पाणिं तस्मिन्नशेत सा॥१३॥ अर्थ :- वह सुमङ्गला, शय्या पर विवाह में भगवान् ने दायें हाथ को स्वीकार किया था, इस कारण बायें हाथ को रोक कर सोती थी।
पूर्वमप्सरसामङ्के, स्थित्वा तत्पादपङ्कजे।
पश्चादवापतां दिव्य-तूलीमौलिवतंसताम्॥ १४॥ अर्थ :- पहले देवाङ्गनाओं की गोद में बैठकर पश्चात् सुमङ्गला के चरण कमलों ने दिव्य रुई के मुकुटत्वपने को प्राप्त किया था।
दीपाः सस्नेहपटवोऽभितस्तां परिवविरे।
ध्वान्तारातिभयं भेत्तुं, जाग्रतो यामिका इव ॥१५॥ अर्थ :- स्नेह सहित चतुर दीपकों ने अन्धकार रूपी शत्रु का भेदन करने के लिए जाग्रत प्राहरिका के समान चारों ओर से सुमङ्गला को घेर लिया।
विसृज्य सा परप्रेमालापपात्रीकृताः सखीः।
निद्रां सुखार्थामेकान्त-सखी संगन्तुमैहत ॥१६॥ अर्थ :- उस सुमङ्गला ने उत्कृष्ट प्रेमालाप का पात्र बनाई हुई सखी को छोड़कर सुखकारिणी एकान्त सखी निद्रा के सङ्ग को चाहा।
तस्याः सुषुप्सया जोष-जुषोऽजायत शर्मणे।
मोहो निद्रानिमित्तः स्याद्दोषोऽप्यवसरे गुणः॥१७॥ अर्थ :- सोने की इच्छा से मौन का सेवन करने वाली उस सुमङ्गला का निद्रा जिसमें कारण है, ऐसा मोह सुख के लिए हो गया। दोष भी अवसर पर गुण हो जाता है।
स्रोतांसि निभृतीभूय, नृपस्येव नियोगिनः।
निशि निर्वविरे तस्याः, स्वस्वव्यापारसंवृतेः॥१८॥ अर्थ :- सुमङ्गला की इन्द्रियों ने अपने-अपने कार्य के रुक जाने पर निश्चल होकर राज सेवकों के समान निवृत्ति को प्राप्त किया।
तदा निद्रामुद्रितदृग्, भवने सा वनेऽब्जिनी।
निद्राणकमला सख्योचितमाचेरतुर्मिथः॥ १९॥ अर्थ :- उस अवसर पर भवन में निद्रा से जिसकी दृष्टि संकुचित हो गई है ऐसी सुमङ्गला ने जिसके कमल संकुचित हो गए हैं ऐसी कमलिनी की मैत्री के योग्य आचरण किया।
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[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-७]
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