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आसतामपरे मौनं, भेजुराभरणान्यपि।
असञ्चरतया तस्या, निद्राभङ्गभयादिव॥२०॥ अर्थ :- दूसरों की बात तो रहने दो, सुमङ्गला के आभूषणों ने भी असंचरता से मानों नींद के टूट जाने के भय से ही मौन सेवन किया।
निद्रानिभृतकाया सा, नायासान्नाकियोषिताम्।
लोचनैर्ले ह्यसर्वाङ्ग-लावण्या समजायत ॥ २१॥ अर्थ :- वह सुमङ्गला नींद से निश्चल शरीर वाली होते हुए देवाङ्गनाओं के नेत्रों से खिन्नता को प्राप्त नहीं हुई, अपितु लोचनों से लेह्य (चाटने योग्य) समस्त अङ्गों के । लावण्य वाली हुई।
निर्वातस्तिमितं पद्म-मिवामुष्या मुखं सुखम्।
न्यपीयताप्सरोनेत्र - भृङ्गैर्लावण्यसन्मधु ॥ २२॥ अर्थ :- सुमङ्गला का लावण्य ही जिसमें मकरन्द है, ऐसा मुख वातरहित स्थान में निश्चल कमल के समान अप्सराओं के नेत्र रूपी भौंरों से पिया गया।
आप्तनिद्रासुखा सौख्य-दायीति स्वप्नदर्शनम्।
अन्वभूत् पुण्यभूमी सोत्सवान्तरमिवोत्सवे॥ २३॥ . अर्थ :- पुण्यभूमि उसने नींद के सुख को प्राप्त कर एक उत्सव में दूसरे उत्सव के समान सुखदायी इस प्रकार के स्वप्नदर्शन का अनुभव किया।
प्रथमं सा लसद्दन्त-दण्डमच्छुण्डमुन्नतम्। भूरिभाराद्भुवो भङ्ग-भीत्येव मृदुचारिणम्॥२४॥ गण्डशैलपरिस्पर्धि-कुम्भ कर्पूरपाण्डुरम्।
द्विरदं मदसौरभ्य - लुभ्यभ्रमरमैक्षत ॥ २५॥ युग्मम्॥ अर्थ :- उस सुमङ्गला ने पहले जिसके दाँत रूप दो दण्ड सुशोभित हो रहे थे, जो ऊपर की ओर सैंड उठा रहा था, ऊँचा था, अत्यधिक भार से भूमि के टूटने के भय से मानों मन्द-मन्द गमन कर रहा था, जिसका गण्डस्थल पर्वत शिखर से स्पर्धा कर रहा था, जो कर्पूर के समान सफेद था तथा मद की सुगन्ध से भौंरों को लुब्ध कर रहा था, ऐसे गजेन्द्र को देखा।
भाग्यैः शकुनकामाना-मिव गर्जन्तमूर्जितम्। शुभ्रं पुण्यमिव प्राप्तं, चतुश्चरणचारुताम्॥ २६ ।।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-७]
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