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________________ सिन्धुरोधक्षमं रोधः, स्यन्तं मृलवलीलया। ., सशृङ्गमिव कैलासं, ककुद्मन्तं ददर्श सा॥२७॥ युग्मम्॥ अर्थ :- उस सुमङ्गला ने शकुन की कामना करने वाले भाग्यों के समान गर्जना करते हुए, बलशाली, चार चरण की चारुता को प्राप्त उज्वल मानों पुण्य हो, नदी को रोकने में समर्थ तट को मिट्टी के खण्ड के समान गिराते हुए, मानों सींगयुक्त कैलाशपर्वत हो ऐसे बैल को देखा। अप्यतुच्छतया पुच्छा-घातकम्पितभूतलम्। अप्युदारदरीक्रोड - क्रीडत्क्ष्वेडाभयङ्करम् ॥२८॥ सद्यो भिन्नेभकुम्भोत्थ-व्यक्तमुक्तोपहारिणम्। हरिणाक्षी हरिं स्वप्न-दृष्टं सा बह्वमन्यत ॥ २९॥ युग्मम् । अर्थ :- उस मृगनयनी सुमङ्गला ने घने होने के कारण पूछ के आघात से जो मानों पृथिवी को कम्पित कर रहा था, विस्तृत गुफा के मध्य में क्रीडा करते हुए सिंहनाद से जो भयङ्कर था, तत्क्षण ही विदीर्ण किए गए हाथी के गण्डस्थल से प्रकट हुए मोतियों को जो उपहार में दे रहा था ऐसे स्वप्न में देखे हुए सिंह का बहुत आदर किया। , विशेष :- सिंह भयङ्कर होने पर भी मोती रूप उपहार को देने के कारण बहुमान्य हुआ, यह भाव है। निधीनक्षय्यसारौघ-तुन्दिलान् सन्निधौ दधिः । भूषाहेग्नः स्ववपुषो, मयूखैरन्तरं प्रती ॥ ३०॥ पद्माकरमयीं मत्वा, नेत्रवक्त्रकरांघ्रिणा। पद्मवासानिवासार्थ-मिवोपनमति स्म ताम्॥३१॥युग्मम्॥ अर्थ :- अक्षय सार पदार्थों के समूह से जिनका उदर बढ़ा हुआ था, निधियों के समीप में जो दही रखे हुई थी, जो अपने शरीर की किरणों से आभूषणों के सुवर्ण के अवकाश का विनाश कर रही थी, ऐसी सुमङ्गला का लोचन, मुख, हाथ और पैरों से उसे कमलों की खानमयी जानकर लक्ष्मी ने मानों निवास के लिए ही आश्रय लिया था। भृङ्गैः सौरभलोभेनानुगतं सेवकैरिव। तन्व्या दो:पाशवत् पुण्य-भाजां कण्ठग्रहोचितम्॥३२॥ प्रहितं प्राभृतं पारिजातेनैव जगत्प्रियम्। असमं कौसुमं दाम, जज्ञे तन्नेत्रगोचरः॥ ३३॥ युग्मम्॥ (१०४) [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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