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शब्द करते हुए हंसों की सुन्दरचर्या जिसमें है, कीचड़ जिसमें सूख गया है तथा पवित्र काश जिसमें प्रकट है, उस शरद् ऋतु के समान सुमङ्गला सुशोभित हुई। .
. सत्पावकार्चिः प्रणिधानदत्ता-दरा कलाकेलिबलं दधाना।
. श्रियं विशालक्षणदा हिमतॊः, शिश्राय सत्यागतशीतलास्या॥४२॥ . अर्थ :- प्रधान एवं पवित्र करने वाले परब्रह्म के ध्यान को जिसने आदर दिया है, कलाओं में क्रीडा के बल को जो धारण करती है, विशाल क्षण को देती है, जिसमें तकार का त्याग है ऐसे शीतल शब्द अर्थात् शील में जिसका निवेश है ऐसी सुमङ्गला ने हिम ऋतु की शोभा का आश्रय लिया। विशेष :- हिम ऋतु भी प्रधान अग्नि की अर्चियों के ध्यान में आदर रखने वाली, कन्दर्प के बल को धारण करने वाली, विशाल रात्रि से युक्त तथा सत्य से आगत शीत रूप नृत्य वाली होती है।
सत्रं विपत्रं रचयन्त्यदभ्रा-गर्म क्रमोपस्थितमारुतौघा।
सा श्रीदकाष्ठामिनमानयन्ती, गोष्ठयां विजिग्ये शिशिरतुकीर्तिम्॥४३॥ अर्थ :- सत्रागार की विपत्ति से रक्षा करती हुई, जिसमें (जिनके पास) लोगों का बहुत आगमन है, जिसके चरणों में देवों का समूह उपस्थित है ऐसे स्वामी को गोष्ठी में लक्ष्मीदायक कोटि में लाती हुई अर्थात् गोष्ठी में सखियों के मध्य वार्ता में स्वामी की लक्ष्मीदायक के रूप में प्रशंसा करती हुई उस सुमङ्गला ने शिशिर ऋतु की कीर्ति को जीत लिया। विशेष :- शिशिर ऋतु भी ऐसे बहुत से वृक्षों वाले वनों से युक्त होती है, उसमें पत्ते नहीं रहते हैं, पवन समूह वहाँ उपस्थित होता है तथा वह गोष्ठी में सूर्य को उत्तर दिशा में लाती है।
उल्लासयन्ती सुमनः समूह, तेने सदालिप्रियतामुपेता।
वसन्तलक्ष्मीरिव दक्षिणा हि, कान्ते रुचिं सत्परपुष्टघोषा॥४४॥ अर्थ :- अच्छे मन वाले लोगों के समूह को सुशोभित करती हुई, सदैव सखियों के प्रेम को प्राप्त, सज्जनों में उत्कृष्ट घोष वाली अनुकूला सुमङ्गला ने श्री ऋषभदेव के प्रति वसन्त लक्ष्मी के समान अभिलाष का विस्तार किया। विशेष :- वसन्त लक्ष्मी फूलों के समूह को विकसित करती हुई भौंरों की प्रियतता को प्राप्त तथा कोयलों के घोष से युक्त होती है।
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६]
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