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अर्थ :
शिव का कण्ठ विष से, चन्द्र मृग से, गङ्गाजल सेवाल से, वस्त्र मल से कलुषता को प्राप्त होता है परन्तु सुमङ्गला का शील किसी भी प्रकार कलुषता को प्राप्त नहीं होता था ।
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गरेण गौरीशगलो मृगेण, गौरद्युतिर्नीलिकयाम्बु गाङ्गम् ।
मलेन वासः कलुषत्वमेति, शीलं तु तस्या न कथञ्चनापि ॥ ३८ ॥
उदारवेदिन्युरुमानभित्तौ, सद्वारशोभाकरणोत्तरङ्गे ।
उवास वासौकसि वर्ष्मणा या, गुणैस्तु तैस्तैर्हृदि विश्वभर्तुः ॥ ३९ ॥
अर्थ -- जो सुमङ्गला शरीर से उत्कृष्ट बराण्डे से युक्त, बड़ी-बड़ी भित्ति वाले तथा उत्तम द्वार की शोभा को करने वाली जिसकी मेहराब है ऐसे निवास समूह में रहती थी, किन्तु (सुन्दर रूप, सौन्दर्य, सुनेत्र, सुन्दर शोभा, प्रिय भाषण, प्रसन्न मुख आदि) गुणों से जो उत्कृष्ट ज्ञान से युक्त थे, जिसका भारी मान क्षय को प्राप्त हो गया था तथा जो सज्जनों के समूह की शोभा के करने रूप ऊँची-ऊँची कल्लोलों से युक्त थे, ऐसे श्री ऋषभदेव के हृदय में निवास करती थी ।
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घनागमप्रीणितसत्कदम्बा, सारस्वतं सा रसमुद्रिरन्ती ।
रजोव्रजं मञ्जुलतोपनीत छाया प्रती प्रावृषमन्वकार्षीत् ॥ ४० ॥
अर्थ
घने आगमों से जिसने सज्जनों के समूह को प्रसन्न किया है, जो सरस्वती सम्बन्धी रस को प्रकट कर रही है, जो पाप के समूह को क्षय कर रही है तथा सौन्दर्य के द्वारा जिसकी कान्ति समीपवर्तिनी है, ऐसी सुमङ्गला ने वर्षा ऋतु का अनुसरण
किया ।
विशेष :- वर्षा ऋतु भी मेघों के आने पर कदम्बों को प्रसन्न करती है, सरस्वती नदी के जल को प्रकट करती है, धूलि के समूह का क्षय करती है तथा सुन्दर सुन्दर लताओं से कान्ति को लाती है ।
स्मेरास्यपद्मा स्फुटवृत्तशालि क्षेत्रा नदद्हंसकचारुचर्या ।
याऽपास्तपङ्का विललास पुण्य-प्रकाशकाशा शरदङ्गिनीव ॥ ४१ ॥
अर्थ :विकसित मुखकमल वाली, प्रकट रूप में औदार्य, गाम्भीर्य, माधुर्य आदि चरित्र से शोभायमान, शब्द करने वाले सुन्दर नूपुरों से मनोज्ञ जिसकी चर्या है, जिसका पाप रूप कर्दम नष्ट हो गया है तथा जिसका जिसकी आशा पुण्य प्रकाशिकी है, ऐसी सुमङ्गला शरद ऋतु के समान सुशोभित हुई ।
विशेष
(९२)
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• जिस शरद ऋतु का विकसित कमल है, जिसमें शलि के क्षेत्र प्रकट हुए हैं,
[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६ ]
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