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________________ अर्थ : वैर रूपी अग्नि को बढ़ाने वाले भी नारद ने उन अनन्य तेज भगवान् को बतलाने के लिए कामदेव जीवित होता हुआ जीव समूह को संग्राम में गिराकर मुझे अनेक बार हर्ष पहुँचाएगा, इस बुद्धि से रोका। , अवारि वैराग्निविवर्धनोऽपि तं नारदो ज्ञीप्सुरनन्यजौजः । जीवन्नसौ जीवगणान्नियोध्य मां भूरिशस्तोषयितेतिबुद्धया ॥ ३२ ॥ 7 आद्यापि या तस्य सुमङ्गलेति, हेतिः स्मरस्यास्खलिता रराज । रम्भाप्यरं भारहिता यदग्रे, रूपं रतेरप्यरतिं तनोति ॥ ३३॥ अर्थ : भगवान् की कामदेव का स्खलित न होने वाला आयुध प्रथम पत्नी सुमङ्गला इस प्रकार सुशोभित हुई। रंभा भी अत्यधिक रूप से जिसके आगे प्रभारहित हो गई । जिसके आगे रति का भी रूप अरति को करता है । : यज्ज्वालमालायुजि काञ्चनेना-हुतिः स्वतन्वा विहिता हुताशे । तत्तेन तुष्टेन यदङ्गवर्ण-सवर्णतादायि मनाक्किमस्मै ॥ ३४॥ अर्थ :- सुवर्ण ने ज्वालाओं की श्रेणि से युक्त अग्नि में जो अपने शरीर की आहुति दी उससे सन्तुष्ट हुए अग्नि ने थोड़ा इसे सुमङ्गला के वर्ण की समानता दी । पद्मं न चन्द्रं प्रति सप्रसादं, तस्योदितः सोऽपि ददाति सादम् । यस्या मुखं द्वावपि तावलुप्त, श्रीमान् परस्फातिसहः क्व हन्त ॥ ३५ ॥ अर्थ :कमल चन्द्रमा के प्रति सुप्रसन्न उदित नहीं हुआ। वह (चन्द्र) भी कमल को खिन्न करता है । जिस सुमङ्गला के मुख को कमल और चन्द्रमा दोनों ने छिपा दिया । ठीक ही है लक्ष्मीवान् दूसरे की वृद्धि को कहाँ सहते हैं? - पूर्वं रसं नीरसतां च पश्चा- द्विवृण्वतो वृद्धिमतो जलौघैः । जगज्जने तृप्यति तद्विरैव-स्थानेऽभवन्निष्फलजन्मतेोः ॥ ३६ ॥ अर्थ :- जल के समूह से (अथवा जड़ समूह से) वृद्धियुक्त सुमङ्गला की वाणी से लोक के तृप्त होने पर पहले रस को पश्चात् नीरसता को प्रकट करते हुए इक्षु की निष्फल जन्मता ठीक ही हुई । यया स्वशीलेन ससौरभाड्या, श्रीखण्डमन्तर्गडुतामनायि । देवार्चने स्वं विनियोज्य जात- पुण्यं पुनर्भोगिभिराप योगम् ॥ ३७॥ अर्थ सुगन्ध सहित शरीर वाली जिस सुमङ्गला ने श्रीखण्ड को निरर्थक बताया । पुन: देवार्चन में अपने आपको लगाकर जिसके पुण्य उत्पन्न हुआ है ऐसे चन्दन ने सर्पों के साथ अथवा भोगी पुरुषों के साथ योग को प्राप्त किया । [ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only (९१) www.jainelibrary.org
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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