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________________ अर्थ :- उन विभु ने अन्य जन्म में उपार्जित अपने भोगने के योग्य कर्म को अवश्य भोक्तव्य जानकर मुक्ति ही जिनकी अभिलाषा है, ऐसा होने पर भी उचित उपचारों से (शीत, ग्रीष्म तथा वर्षा ऋतु के योग्य उपचारों से ) सुमङ्गला और सुनन्दा के साथ विषयों को भोगा । 7 न तस्य दासीकृतवासवोऽपि मनो मनोयोनिरियेष जेतुम् । विगृह्णते स्वस्य परस्य मत्वा, ये स्थाम तानाश्रयते जयश्रीः ॥ २७ ॥ अर्थ :- मन जिसका उत्पत्ति स्थल है, ऐसे कामदेव ने इन्द्र को दास बनाने पर भी उन भगवान् के मन को जीतने की इच्छा नहीं की। जो अपने और दूसरे के बल को जानकर विग्रह करते हैं, विजयलक्ष्मी उनका आश्रय लेती है। श्रोतांसि पञ्चापि न पुष्पचाप - चापल्यमातन्वत तस्य नेतुः । स्वदेहगेहांशनिवासिनां यो, न शासकः सोऽस्तु कथं त्रिलोक्याः ॥ २८ ॥ अर्थ : स्वामी की पंच इन्द्रियों ने काम की चपलता को नहीं किया। जो अपने देह रूप घर के कोने में बसने वालों का शासक न हो, वह तीनों लोकों का शासक कैसे हो सकता है ? : या योषिदेनं प्रतिदृष्टिभली-चिक्षेप बाधाकरकामबुद्धया । तामप्यवैक्षिष्ट दृशा स साम्य-स्पृशैव शक्तौ सहना हि सन्तः ॥ २९ ॥ अर्थ :जिस स्त्री ने इन भगवान् के प्रति बाधा करने वाली कामबुद्धि से दृष्टि रूपी भाला फेंका, उन भगवान् ने उसके प्रति भी समता का स्पर्श करने वाली दृष्टि से देखा । निश्चित रूप से सज्जन पुरुष शक्ति के होने पर सहनशील होते हैं । नासौ विलासोर्मिभिरप्सरोभि-रक्षोभि नाट्यावसरागताभिः । स्रोतः पतेर्यो मनसोऽपि शोषे, प्रभूयते तस्य किमत्र चित्रम् ॥ ३० ॥ अर्थ :भगवान् नाट्य के अवसर पर आयी हुई अप्सराओं की विलास रूप कल्लोलों क्षोभ को प्राप्त नहीं है। जो इन्द्रियों के स्वामी (अथवा समुद्र) को मन से भी सुखाने में समर्थ हैं, वे यदि अप्सराओं से क्षोभ को प्राप्त नहीं होते हैं तो इसमें आश्चर्य क्या है ? जगे न गेयेष्वपि नाकसद्भिः, स्मरस्य साराधिकता पुरोऽस्य । शतं सतां वर्धयितुं विरोधं, लोला कथं सौमनसी विलोला ॥ ३१ ॥ अर्थ : देवों ने इन भगवान् के सामने गीतों में भी कामदेव के बल की अधिकता का गान नहीं किया । देवों की जीभ सज्जनों के शान्त विरोध को बढ़ाने में चंचल कैसे हो सकती है ? अपितु नहीं हो सकती है। (९०) Jain Education International [ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६ ] www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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