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विधोरुदीतस्य करैरवापि, दिनायितं यत्प्रसृतैस्त्रियामा।
युवाक्षिभृङ्गैस्तदरामि रामा-तरङ्गिणीस्मेरमुखाम्बुजेषु ॥ २१॥ अर्थ :- रात्रि ने उदित होते हुए चन्द्रमा की किरणों के फैलने पर जो दिन के समान आचरण किया, वह युवकों के नेत्र रूप भौंरों के द्वारा स्त्री रूप नदी के मुस्कराते हुए मुख कमलों पर सुशोभित हो रहा था।
. लोके सितांशोर्गमिते मयूखै-र्दुग्धाब्धिकेलीकुतुकानि देवः । .. इयेष स स्वापसुखं सरोज-साम्यं सिसत्यापयिषुः किमक्ष्णोः ॥२२॥ अर्थ :- दोनों नेत्रों के कमल के सादृश्य को सत्यापित करने के इच्छुक लोक में चन्द्रमा की किरणों से क्षीर समुद्र के क्रीडा कौतुक को पहुँचने पर जिस प्रकार नारायण (देव) निद्रा के सुख को प्राप्त करते हैं उसी प्रकार उन युगादिदेव ने निद्रासुख की इच्छा की।
तदैव देवैः कृतमग्र्यवर्णं, समं वधूभ्यां मणिहर्म्यमीशः। ..... ततो गुरूद्गन्धि विवेश शास्त्रं, मतिस्मृतिभ्यामिव तत्त्वकामः॥२३॥ . अर्थ :- अनन्तर श्री ऋषभ ने सुमङ्गला और सुनन्दा के साथ उसी, देवों द्वारा बनाए गए मणियों के महल में प्रवेश किया। अगुरु की गन्ध से युक्त तत्त्व के इच्छुक से मति और स्मृति के साथ श्रेष्ठ वर्ण वाले शास्त्र में प्रवेश किया। . . .
विवाहदीक्षाविधिविद्वधूभ्यां, कृत्वा सखीभ्यामिव नर्मकेलीः। . निद्रां प्रियीकृत्य स तत्र तल्पे, शिश्ये सुखं शेष इवासुरारिः॥ २४॥ अर्थ :- विवाह दीक्षा की विधि को जानने वाली दोनों सखियों - सुमङ्गला और सुनन्दा के साथ क्रीडा कौतुक करके उन भगवान् ने मणिमय आवास में पलङ्ग पर
निद्रा को अभीष्ट कर नारायण के समान सुख से शयन किया। १ त्रिरात्रमेवं भगवानतीत्या-निरुद्धपित्रानुपरुद्धचित्तः।
ततस्तृतीयेऽपि पुमर्थसारे, प्रावर्ततावक्रमतिः क्रमज्ञः॥२५॥ अर्थ :- अनिरुद्ध के पिता काम से जिसका हृदय अनासक्त है तथा जिसकी बुद्धि कुटिल नहीं है एवं धर्म, अर्थ, काम आदि के क्रम को जानते हैं, ऐसे भगवान् ने इस प्रकार तीन रात्रियाँ बिताकर अनन्तर तीसरे भी (कामरूप) पुरुषार्थ के रहस्य में प्रवृत्ति की। ...भोगाईकर्म ध्रुववेद्यमन्य-जन्मार्जितं स्वं स विभुर्विबुध्य।
मुक्तयेककामोऽप्युचितोपचारै-रभुत ताभ्यां विषयानसक्तः ॥२६॥
.. [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-६]
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