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अर्थ :- चन्द्रमा द्वारा अपने ( अथवा राजा द्वारा) किरणरूप दण्डों से अन्धकार निर्दयतापूर्वक विखण्डित किए जाने पर जिस अन्धकार ने चन्द्र रूप शरण्य की शरण ही स्वीकार की। लोगों के द्वारा उस अन्धकार ने क्या लाञ्छन रूप नाम को क्या प्राप्त नहीं किया? अर्थात् अवश्य प्राप्त किया।
अत्रेर्द्विजादुद्भवति स्म न श्री तातात्पयोधेर्विधुरित्यवैमि । यज्जातमात्रः प्रतिधिष्ण्यमेषोऽक्षिपत्करं श्रीलवलाभलोभात् ॥ १७॥
अर्थ :- चन्द्रमा अत्रि नामक ब्राह्मण से उत्पन्न हुआ है, लक्ष्मी के पिता समुद्र से उत्पन्न नहीं हुआ है, ऐसा जानता हूँ। जो कि उत्पन्न होते ही लक्ष्मी के लेश के लाभ के लोभ से प्रत्येक नक्षत्र (अथवा प्रत्येक घर ) पर किरणों को (हाथ को ) फैलाता है ।
विशेष :- चन्द्रोदय होने पर नक्षत्र निस्तेज हो गए। ब्राह्मण प्रत्येक घर याचना करते हैं, इस कारण चन्द्रमा भिक्षाचर के घर में उत्पन्न हुआ है, ऐसा जाना जाता है 1
अलोपि सूरोऽपि मया पतन्त्या प्यहं महोऽवग्रहभिद्ग्रहाणाम् ।
मय्येव जन्मोत्तमपूरुषाणां का योगिभोगिष्वपरा मदिष्टा ॥ १८ ॥
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स्त्री ततः कापि मया समाना, मानास्पदं या बत सा पुरोस्तु ।
इतीव सल्लक्ष्मलिपीन्दुपत्रमुच्चैः समुत्तम्भयति स्म रात्रिः ॥ १९ ॥
अर्थ रात्रि विद्यमान लाञ्छन ही जिसमें लिपि है, ऐसे चन्द्र रूप पत्र को अत्यधिक रूप से ऊपर उठा रही थी मानों इसीलिए क्या मैंने आते हुए सूर्य को भी लुप्त कर दिया। मैं ग्रहों के तेज के विघ्न को भेदकर व्यवहार करती हूँ। उत्तम पुरुषों का जन्म मुझमें ही होता है। योगी और भोगियों में कौन मेरे समान अभीष्ट है ? अतः कोई स्त्री मेरे समान नहीं है, जो मान का स्थान हो वह मेरे आगे हो जाए ।
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विशेष :- योगी लोग रात्रि में ही प्रायः ध्यान से निश्चल नेत्रों वाले होकर योगनिद्रा को प्राप्त करते हैं । भोगी भी शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श इन पाँच प्रकार के विषयसुख का अनुभव करते हैं।
अदान्मदान्ध्यं तमसामसाध्यं, क्षिपाक्षिपादं प्रति वैरिणां या ।
तां विन्दुरिन्दुर्दयितां चकार, सारं कलत्रं क्व कलङ्किनो वा ॥ २० ॥ अर्थ :- जिस रात्रि ने रात्रि जिसकी स्त्री है उस चन्द्र के प्रति वैरियों का अन्धकार का असाध्य मन्दान्ध्य दिया, विद्वान् भी चन्द्र ने उसे स्त्री बनाया अथवा कलङ्कियों की सार रूप स्त्री कहाँ है ?
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जैन कुमारसम्भव महाकाव्य,
सर्ग - ६ ]
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