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________________ ८. अष्टमः सर्गः अथ प्रसन्नप्रभुवक्त्रवीक्षा-पीयूषपानोत्सवलीनचेताः। विश्रम्य मृद्वी क्षणमङ्मिचार-जन्मक्लमच्छेदमसौ विवेद ॥१॥ अथ :- अनन्तर प्रसन्न प्रभु को देखने रूप अमृतपान के उत्सव में जिसका चित्त लीन है ऐसी सुकोमला उस सुमङ्गला ने क्षण भर विश्राम कर चरण संचरण से उत्पन्न श्रम के अन्त को जाना (प्राप्त किया)। ये श्वासवाता वदनादमान्त, इवोद्भवन्ति स्म रयेण तस्याः। ते स्वास्थ्यमापत्सत वह्निदिश्य-वायोर्विरामे जलधेरिवापः॥२॥ अर्थ :- सुमङ्गला के मुख से जो श्वास वायुये वेग से मानों न समाती हुई निकलती हैं, वे आग्नेय कोण की वायु के विराम लेने पर समुद्र के जल के समान स्वास्थ्य प्राप्त कर लेती हैं। या कृत्रिमा मौक्तिकमण्डनश्री-रदीयत स्वेदलवैस्तदङ्गे। तत्र स्थितौ सा सहसा विलीना, किं कृत्रिमं खेलति नेतुरग्रे॥३॥ अर्थ :- सुमङ्गला के शरीर में पसीने के कणों से जो कृत्रिम मुक्तामयी अलंकरण लक्ष्मी दी गई थी, श्री युगादीश की दृष्टि में वह यकायक विलीन हो गई। स्वामी के आगे क्या कृत्रिम खेलता है? अर्थात् नहीं। शूथं विहारेण यदन्तरीय-दुकूलमासीत् पथि विप्रकीर्णम्। सांयात्रिकेणेव धनं नियम्य, नीवीं तया तद् दृढयाम्बभूवे॥४॥ अर्थ :- जिस सुमङ्गला का परिधान रूप रेशमी वस्त्र मार्ग में चलने से शिथिल तथा बिखरा हुआ था. वह सुमङ्गला के द्वारा मेखला को बाँधकर धन बाँधकर मिलकर यात्रा करने ले पात्री के समान दृढ किया गया। मा. प्रमीलासुखभङ्गभीति-स्तामेकतो लम्भयांतस्म धैर्यम्। सार्थशुश्रूषणकौतुकं चा-न्यतस्त्वरां स्त्रीषु कुतः स्थिरत्वम्॥५॥ [जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-८] ।११३) www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002679
Book TitleJain Kumarsambhava Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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