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समान क्षय को प्राप्त नहीं होते हैं । हे निपुणे! उन नव निधियों की स्वाधीनता तुम्हारे पुत्र में होगी। विशेष :- निधियों का आधुनिक दृष्टि से अध्ययन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि ये निधियाँ शिल्प शालायें थीं । काल नाम की निधि में ग्रन्थ मुद्रण या ग्रन्थ लेखन का कार्य होता था। साथ ही वाद्य भी इसी शिल्पशाला द्वारा उत्पन्न किए जाते थे। महाकालनिधि शिल्पशाला में विभिन्न प्रकार के आयुध तैयार किए जाते थे। नैसर्ग्य निधि में शय्या, आसन एवं भवनों के उपकरण तैयार किए जाते थे। भवन बनाने का कार्य भी इसी शिल्पशाला द्वारा सम्पन्न होता था। विभिन्न प्रकार के धान्यों और रसों की उत्पत्ति पाण्डु की निधि-उद्योग, व्यवसाय द्वारा सम्पन्न होती थी। पद्मनिधि नामक व्यवसाय केन्द्र से रेशमी एवं सूती वस्त्र तैयार होते थे। दिव्याभरण एवं धातु सम्बन्धी कार्य पिङ्गल नामक व्यवसाय केन्द्र में सम्पन्न किए जाते थे। माणव नामक उद्योग-गृह से शस्त्रों की प्राप्ति होती थी। प्रदक्षिणावर्त नामक उद्योगशाला में सुवर्ण तैयार किया जाता था। शंख नामक उद्योगशाला में स्वर्ण की सफाई कर उसे शुद्ध रूप में उपस्थित किया जाता था। सर्वरत्न नामक उद्योग शाला नील, पद्मराग, मरकतमणि, माणिक्य आदि विभिन्न प्रकार की मणियों की खान से निकालकर उन्हें सुसंस्कृत रूप में उपस्थित करने का कार्य करती थी।
न मानवीष्वेव समाप्तकामः, प्रभामयीं मूर्तिमुपेतयासौ।
समाः सहस्त्रं सुरशैवलिन्या, समं समेष्यत्युपभोगभङ्गीः॥ ४५ ॥ अर्थ :- हे देवि! तुम्हारा पुत्र मानवीयों में असम्पूर्ण अभिलाष होकर कान्तिमयी आकृति को प्राप्त देवनदी (गङ्गा) के साथ एक हजार वर्ष विलासादि सुख के प्रकारों को प्राप्त करेगा।
सत्धर्मिकान् भोजयतोऽस्य भक्त्या, भक्तैर्विचित्रैःशरदां समुद्रान्।
भक्तेश्च भुक्तेश्च रसातिरेकं, वक्तुं भविष्यत्यबुधा बुधाली॥ ४६॥ अर्थ :- तुम्हारे इस पुत्र के द्वारा सुश्रावकों को भक्ति से विचित्र अन्नों से वर्षों के समुद्र (कोटाकोटी) तक खिल जाने पर भक्ति और भुक्ति के रसाधिक्य को कहने में विद्वत् श्रेणी अजानकार होगी।
निवेशिते मूर्ध्यमुना विहार-निभे मणिस्वर्णमये किरीटे।
न सुभ्र भर्ता किमुदारशोभां, भूभृद्वरोऽष्टापदनामधेयः॥ ४७॥ अर्थ :- हे सुन्दर भौंह वाली! इस तुम्हारे पुत्र के द्वारा प्रासाद के सदृश मणि तथा
[जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग-११]
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