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अर्थ :- देवाङ्गनायें स्वर्ग जाकर संभोग के अवसर पर पीड़ित होकर प्रिय के द्वारा आलिङ्गन किए जाने पर भी वैसा सुख नहीं जानेंगी, जैसा तुम्हारे पुत्र का आलिङ्गन कर प्रसन्नता प्राप्त कर तथा पृथिवी को क्रीडा के लिए पाकर सुख का अनुभव करेंगी। अस्मिन् मयैकासनसन्निविष्टे, मत्तो महत्त्वादिगुणैरनूने । चिह्नरिलास्पर्शनिमेषमुख्यै- रस्यैव मां लक्षयितामरौघः ॥ ४० ॥
अर्थ :हे देवि ! मेरी अपेक्षा महत्त्वादि गुणों से सम्पूर्ण इस तुम्हारे पुत्र के मेरे साथ एक आसन पर बैठने पर देवसमूह इस पुत्र के ही पृथिवीतलस्पर्शादि चिह्नों से मुझे
लक्षित करेगा ।
प्राप्ता भुवं खेलयितुं तनूजं, तवोपगुह्याप्तमुदस्त्रिदश्यः । तथा रतिं न स्वरितारतार्त-प्रियोपगूढा अपि बोधितारः ॥ ३९॥
अर्थ
इस तुम्हारे पुत्र के तलवार पर हाथ रख हाथी पर चढ़कर युद्ध के लिए प्रयाण करने पर कुछ भागते हुए शत्रु राजा शरीर की उच्चता तथा अन्य शरीर की गुरुता निन्दा करेंगे।
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अर्थ
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अस्मिन्नसिव्यग्रकरे करीन्द्रा - रूढे रणाय प्रयतेऽरिभूपाः । पलायमाना वपुषो विगास्यन्त्युच्चत्वमेके गुरुतां तथान्ये ॥ ४१ ॥
हे देवि ! बाण के अन्तिम भाग में अक्षरों के देखने से जिनका गर्व नष्ट हो गया है ऐसे देव भी संग्राम न करने पर भी इस तुम्हारे पुत्र का नाट्य करके दासपने को प्राप्त
होंगे ।
अस्येषु पुंखक्षरवीक्षणेन, क्षरन्मदाः संख्यमतन्वतोऽपि । यास्यन्ति दास्यं समुपास्य लास्यं, दूरे मनुष्या दनुजारयोऽपि ॥ ४२ ॥
अस्मिन् दधाने भरताभिधानमुपेष्यतो भूमिरियं च गीश्च ।
विद्वद्भुवि स्वात्मनि भारतीति, ख्यातौ मुदं सत्प्रभुलाभजन्माम्॥४३॥
(१६६)
अर्थ :- इस तुम्हारे पुत्र के भरत नाम धारण करने पर यह भूमि और सरस्वती विद्वज्जनों के स्थान में 'भारती' इस ख्याति के होने पर सुस्वामि की प्राप्ति से समुत्पन्न मोद को प्राप्त करेगी ।
उदच्यमाना अपि यान्ति निष्ठां, सूत्रेषु जैनेष्विव येषु नार्थाः ।
तेषां नवानां निपुणे निधीनां, स्वाधीनता वर्त्स्यति ते तनूजे ॥ ४४ ॥
अर्थ :- जिन निधियों में से निकाले जाने पर भी पदार्थ जिनेन्द्र भगवान् के आगम के
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[ जैन कुमारसम्भव महाकाव्य, सर्ग - ११ ]
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